ठाकुरगंज के छैतल पंचायत अंतर्गत दो सौ एकड़ में फैले कच्चूदह झील के सिकुड़ते आकार के बावजूद प्रत्येक वर्ष विदेशी पक्षियों का यहां बड़े पैमाने पर आना होता है। ठंडक के मौसम में यह झील मेहमान पंक्षियों के कौतूहल से गुलजार हो जाता है। इस बार भी बड़े पैमाने पर सैलानी पंक्षी आये हैं। झील पर शिकारियों की कुदृष्टि भी रहती है। इसके चलते सैकड़ों पंक्षी अपने साथी खोकर लौटते हैं। शिकारियों पर अंकुश के लिए संबंधित विभाग द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की जाती है।
इस संबंध में पर्यावरण विद् मानते है कि ठाकुरगंज तथा पोठिया क्षेत्र में कई प्रजातियों के विदेशों पंक्षी नवम्बर के अंतिम सप्ताह से आना शुरू कर देते हैं और वह मार्च तथा अप्रैल के प्रथम सप्ताह तक यहां रहते हैं। इस दौरान किसी भी प्रजाति की पंक्षी यहां प्रजनन नहीं करता। अनुकूल वातावरण में पक्षी यहां रहकर वापस साईवेरिया चले जाते हैं। इस समय लालसर पंक्षी काफी कम संख्या में आते है। कारण यह है कि लालसर और चाहा को स्थानीय लोग मारकर खा जाते हैं। इसी प्रकार मेहमान पंक्षियों में नीलसर, खजंन, गढ़वाल, गारगेनी, वाडहेडगिज आदि का भी लोग शिकार करते हैं।
अबा तक जनप्रतिनिधियों द्वारा झील को पर्यटन स्थल में तब्दील कराने का वायदा किया जाता रहा है, लेकिन उसे अब तक हकीकत में नहीं बदला जा सका है। झील के उअपेक्षा के कारन लगभग दो सौ एकड़ में फैले झील में पानी काफी कम हो गया है। यह झील जिला ही नहीं प्रदेश की धरोहर है। इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित नहीं करना क्षेत्र के लोगों के साथ अन्याय है।
कई बार अधिकारी भी इस झील का निरीक्षण किये। नौका बिहार व पर्यटन स्थल बनाने की बात हुई, लेकिन बस योजना बनाने की बात तक ही मामला सीमट कर रह गया।
Saturday, December 18, 2010
Thursday, December 16, 2010
एमएलए फ़ंड बंद कर बिहार ने दिखाया देश को राह |
Wednesday, November 24, 2010
बिहार विधानसभा के चुनाव में ठाकुरगंज विधान सभा में किस्मत अजमाने वाले प्रत्याशी को मिले मतों पर एक नजर
Candidate Party Votes
NAUSHAD ALAM Lok Jan Shakti Party 36372
GOPAL KUMAR AGARWAL Janata Dal (United) 29409
JAHIDUR RAHMAN Indian National Congress 15652
MUHAMMAD MEHAR ALI Nationalist Congress Party 11462
POONAM DEVI Jharkhand Mukti Morcha 10715
AWADH BIHARI SINGH Independent 9030
NAVEEN YADAV Bahujan Samaj Party 6653
JAGDISH PRASAD SINGH Independent 4748
AMIT KUMAR BHAGAT Independent 1740
GANESH PRASAD RAI Samajwadi Party 1573
CHITRANJAN SINGH Independent 1173
Wednesday, November 17, 2010
चाय उत्पादक किसान की बेहाली कौडि़यों के दाम चाय पत्ती
किशनगंज के चाय उत्पादक किसानों के मामले में सरकार की नीति हवा हवाई साबित हो रही है. आज किशनगंज के चाय उत्पादक किसान बिहार सरकार के उदासीन रवैये के कारण परेशान हैं. वे चाय पत्ती को पश्चिम बंगाल के बिचौलियों के हाथों औने-पौने दामों पर बेचने को विवश हैं. जिले में टी प्रोसेसिंग यूनिट के अभाव में हरी चाय पत्ती को बंगाल के बिचौलियों के हाथों कौड़ियों के भाव में बेचना यहाँ के किसानो के मजबूरी है |यह स्थिते तब है जब सरकार चाय के खिती के लिए किसानो को सहूलियत का दावा करती है | परन्तु व्यवसायिक फसल होते हुए भी सरकार का ध्यान चाय की खेती के प्रति उदासीन ही है |
ग़ौरतलब है कि बिहार का किशनगंज चाय का उत्पादन करने वाला पहला ज़िला है. यहां चाय की खेती करने वाले किसानों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है. मालूम हो कि किशनगंज ज़िला बंगाल के दार्जिलिंग ज़िले से सटा हुआ है, जिससे यहां की भौगोलिक संरचना, मिट्टी, जलवायु और वातावरण आदि दार्जिलिंग से मेल खाती है. वर्तमान में किशनगंज में कई प्रमुख हस्तियों के साथ व्यवसायी एवं अनेक छोटे-बड़े उत्पादक खाद्य फसलों की खेती से विमुख होकर चाय की खेती में लगे हुए हैं. सरकार के प्रयास से वर्तमान में जिले में चार चाय प्रसंस्करण यूनिट चल रहे है | परन्तु जिस जिले में लगभग 27,000 एकड़ में चाय की खेती हो रही है,वहा केवल चार यूनिट काफी कम है प्रसंस्करण इकाई के अभाव में किसान चाय पत्ती को पश्चिम बंगाल के बिचौलियों के हाथों औने-पौने दामों में बेचने पर विवश हैं.
हालाकी सरकार ने पोठिया प्रखंड के कच्चाकली में सरकारी टी प्रोसेसिंग यूनिट स्थापना का निर्णय लिया. इसके तहत वर्ष 2006 में सरकारी टी प्रोसेसिंग यूनिट का निर्माण हुआ, लेकिन इस यूनिट के निर्माण में लगभग 12 करोड़ का घोटाला का आरोप शुरुआत से लग रहा है | जिसमें कई नेता एव^ अधिकारी शामिल है | स्थिती यह है के छ शाल बाद भी यह प्रोसेसिंग प्लांट बंद है और इसके उपकरण ज़ंग लगने से खराब हो चुके हैं. वेसे भी किशनगंज में स्थापित अनेक चाय बागान विवादित हैं, जो भूदान की ज़मीन को स्थानीय एवं पड़ोसी राज्य बंगाल के व्यवसायियों द्वारा बंदोबस्ती करके लगाए गए हैं. यह भूमि आदिवासियों के क़ब्ज़े में थी. इस भूमि पर टी बोर्ड के नियमों की धज्जियां उड़ाकर स्थानीय हल्का कर्मचारी एवं प्रशासन ने मिलकर बागान लगाने का काम किया. टी बोर्ड के नियम के कॉलम 3 में स्पष्ट उल्लेख है कि ज़मीन पट्टे की नहीं होनी चाहिए और कॉलम 16 के अनुसार ज़िलाधिकारी से नो ऑबजेक्शन सर्टिफिकेट(एनओसी) मिलना चाहिए. इन सबके बावजूद वर्तमान में किशनगंज को टी सिटी बनाने का सपना अधूरा नज़र आ रहा है. न जाने वह दिन कब आएगा जब किशनगंज के चाय उत्पादक किसान मानचित्र पर छा जाएंगे.
Monday, July 5, 2010
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कैम्पस की स्थापना की लिए शुरू हुई दबाब की राजनीति
किशनगंज में नितीश की जनसभा में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कैम्पस की स्थापना की लिए लहराए जा रहे कुछ बेनर क्या दबाब की राजनीति का हिस्शा तो नहीं | "AMU की स्थापना - हकीकत या फ़साना ", का बेनर तो समझ में आरहा था | परन्तु एक और बेनर " आपका साथ AMU की स्थापना के बाद" का बेनर जो एक तरह से धमकी थी के बाद तो नितीश को समझ लेना चाहिए की जिस वर्ग के वोट की लिए रोज नई नई घोषणा हो रही है | उसके वोट इअतानी आशानी से नहीं मिलेगे | कही यह न हो जाए की न मिले खुदा न मिले विशाले शनम |
Friday, June 18, 2010
नेपाल, भूटान सीमा पर बढ़ेगी एसएसबी की निगरानी | परन्तु बिना बटालियन हेडक्वार्टर के सुरक्षा केसे होगी यह भी भारत सरकार को समझना होगा |
www.thakurganj.co.in एक तरफ सरकार आतंकी ही नहीं, नक्सलीयो द्वारा नेपाल और भूटान की सीमा का इस्तेमाल करने की आशंका बतात्ते हुए सीमा पर निगरानी और खुफिया तंत्र को और मजबूत करने की बात कर रही है | इसके लिए सशस्त्र सीमा बल [एसएसबी] की 32 और कंपनियां नेपाल एवं भूटान सीमा पर तेनात करने की तेयारी कर रही है परन्तु क्या सरकार यह जानती है पहले से सीमा पर तेनात एस एस बी की कई बटालियने को आज भी वर्षो बाद जमींन नहीं मिल पाई है | सरकार के इस मद में आवंटित करोडो रूपए बेकार पड़े है ओर जवान किराए की जमीन पर एक तरह से खुले में रहने को विवश है | जब जवानही असुरक्षित है तो सरकार केसे सीमा सुरक्षा का दावा कर सकती है | बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, पश्चिम बंगाल और सिक्किम से लगी नेपाल की 1751 किलोमीटर लंबी सीमा के अलावा भूटान की 669 किलोमीटर की सीमा की निगरानी कर रहे विभिन्न बटालियन के बारे में नहीं जानता , परन्तु बिहार के किशनगंज जिले में एस एस बी की जिन दो बटालियन की स्थापना है। उनमें एक २२ वी बटालियन एव दूसरी ३६ वी बटालियन दोनों को अपनी स्थापना की लगभ ग ५ वर्षो बाद भी जमीन नहीं मिलने से जवान ही नहीं पुरी सीमा असुरक्षित बनी हुई है | सीमा पार से तस्करी और दूसरी गैर कानूनी गतिविधियों को रोकने की जिम्मेदारी भी इन्हीं के ऊपर है। तथा भारत-नेपाल सीमा के लिए इसे प्रमुख खुफिया एजेंसी भी बनाया गया है।
Tuesday, May 11, 2010
KISHANGANJ - CHALO CHICKAN NECK -AT 17-12-2008
बांग्लादेश विश्व के उन सबसे बड़े देशों में है जो लगातार शरणार्थियों को पैदा कर रहे हैं। इसका खामियाजा भारत को भुगतना पड़ रहा है क्योंकि भारत की 4096 किलोमीटर सीमा बांग्लादेश से सटी है। सामरिक महत्व के क्षेत्र किशनगंज में पिछले चार दशकों से भारतीय क्षेत्रों में बांग्लादेश घुसपैठ जारी है। वोट बैंक की राजनीति ने नेताओं की आंख-कान एवं मुंह पर स्वार्थ की पट्टियां बांध दी है। बांग्लादेश घुसपैठियों के जिले के अन्दर संरक्षक मौजूद है। जिसके कारण 1982 में दस हजार बांग्लादेशियों की पहचानने वाले पदाधिकारियों को यहां से स्थानांतरित कर दिया गया था। सता पते ही जनप्रतिनिधि इस मुद्दे पर चुप्पी साध लेते है | इस मामले में न तो सरकार की नीति ठीक है और न नीयत। फलत: घुसपैठ जो सत्तर के दशक में मात्र फुंसी के रूप में थी वहीं अब यह लाइलाज फोड़ा बन गयी है।
Sunday, April 11, 2010
किसनगंज में ही क्यों अलिगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय का केंद्र
अलिगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के किशनगंज में प्रस्तावित केन्द्र को लेकर इन दिनों बिहार सरकार और विद्यार्थी परिषद् आमने सामने है। राष्ट्रीय सुरक्षा के कई मुद्दों पर अब तक कई बार सडको पर उतर चुकी विद्यार्थी परिषद् एक बार फिर राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर सडको पर है | परिषद् पहले जहा बंगलादेशी घुसपेढ़ , तीन बीघा को बंगलादेश को दीए जाने जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर पहले भी सडको पर उतर चुकी है परन्तु इस बार परिषद् जिस सरकार के खिलाफ जंग में उतरी है उसे बनाने में परिषद् के कार्यकर्ताओ ने भी खूब मेहनत की थी | भारतीय जनता पार्टी को बिहार की सता पर बैठाने में जिन परिषद्वै के कार्यकर्ताओ ने अपने अपने इलाके में पशीना बहाया था , उसी सरकार के खिलाफ परिषद क्यों सडको पर आया यह विषय तब ज्यादा आश्चर्य जनक लगता है जब यह बात भी साफ है की इसी सरकार में उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी परिषद की ही उपज है | परिषद के राष्ट्रिय महामंत्री रह चुके सुशील कुमार मोदी के साथ ही सरकार के कई मंत्री, विधायक एव संसद अभाविप के जरिए राजनीति में आकर आज सत्ता के केन्द्र में हैं । उस विद्यार्थी परिषद् के कार्यकर्ता आन्दोलन के लिए एकाएक छात्र सडक पर नहीं उतरे। किशनगंज के एएमयू केन्द्र के खिलाफ विद्यार्थी परिषद ने पहले सरकार को बाकायदा ज्ञापन दिया, फिर धरना दिया गया, लेकिन जब सरकार की कानों पर जूं तक नहीं रेंगी तो विगत 29 मार्च को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के कार्यकर्ता लगभग 25 हजार छात्रों के साथ बिहार विधानसभा को धेरने निकल पडे। विद्यार्थी परिषद् के इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर बिहार पुलिस ने बेरहमी से लाठियां बरशायी जिसमें सेकड़ो छात्र बुरी तरह घायल हो गये। संजोग से गभीर रूप से घायलो में २ कार्यकर्ता किशनगंज के ही थे | विगत एक दशक के बाद पहली बार बिहार के छात्रों ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला है। याद रहे यह आन्दोलन न तो भ्रष्टाचार के खिलाफ है और न ही कोई शौक्षणिक मुद्दों को लेकर है। यह आन्दोलन राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर है। तो ओर छात्र आन्दोलन की उपज रहे नितीश के खिलाफ बिहार का छात्र अगर आज आन्दोलन के लिए तैयार हो जाता है तो नितिश को भी यह सोचना होगा की विद्यार्थी परिषद् ने क्यों राड ठानी है | इसके पीछे का कारण बिहार सरकार के द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा की अवहेलना है। परिषद् का यह आरोप है की यहां विश्वविद्यालय की शाखा खुलने से इस क्षेत्र में सांप्रदायिक आतंकवाद की जडें मजबूत होगी | छात्रों की मांग है कि किशनगंज में किसी राष्ट्र भक्त मुस्लिम के नाम पर विश्विधालय खोलिए हम उसका समर्थन करेगे । अलिगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के केंद्र के विरोध के पीछे आन्दोलनरत छात्रों का तर्क है कि यहां विश्वविद्यालय की शाखा खुलने से इस क्षेत्र में सांप्रदायिक आतंकवाद की जडें मजबूत होगी | गृहमंत्रालय और केन्द्रीय गुप्तचर विभाग का भी मानना है कि नेपाल और भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में विगत 20 साल के अंदर बडी तेजी से मदरसे और मस्जिदों का निर्माण हुआ है। इस बात का खुलासा मामले के जानकार हरेन्द्र प्रताप ने भी अपनी पुस्तक में किया है। किशनगंज का इलाका नेपाल और बांग्लादेश की सीमा पर है। इस गलियारे को चिकेन नेक गलियारा भी कहा जाता है। यहां नेपाल के रास्ते पाकिस्तान एवं चीनी गुप्तचर सक्रिय हैं। जिस प्रकार से विश्व में इस्लामिक आतंकवाद का उभार हुआ है उससे इस बात को बल मिलता है कि जहां इस्लामी छात्रों की जमात होती है वहां गैर सामाजिक और अराष्ट्रवादी गतिविधियों को सह मिलने लगता है। इससे पहले किशनगंज एवं सिलीगुड़ी के बिच स्थित गायसल नामक स्थान पर दो ट्रेनें आपस में टकरा गयी थी। ट्रेन की टक्कर से सैकडों लोग मारे गये। इस ट्रेनों में यात्रा करने वाले ज्यादातर लोग भारतीय सेना के सदस्य थे। जब इस दुर्घटना की जांच रपट सामने आयी तो चौकाने वाले तथ्य भी सामने आये। तथ्यों की मिमांशा से यह पता चला कि ट्रेन दुर्घटना महज एक घटना नहीं थी गाडियों को बाकायदा टकराने के लिए मजबूर किया गया था। यही नहीं चीन नेपाल में लगातार अपनी स्थिति मजबूत करने में लगा है |चीन एवं पाकिस्तान दोनों की नजर किशनगंज के उस 32 किलोमिटर वाले चिकेन नेक पर है। जब इस क्षेत्र में मुस्लिम गतिविधियां बढेगी तो स्वभाविक है कि वहां एक नये प्रकार का समिकरण भी विकसित होगा। चीन और पाकिस्तान की दोस्ती जगजाहिर है। विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रवादी कार्यकर्ता इस मामले को कई मंचों से बराबर उठाते रहे हैं। ऐसे में उनका गुसशा स्वाभाविक है। लेकिन बिहार सरकार को तो साम्प्रदायिक तूटिकरण में विश्वास है | विद्यार्थी परिषद के नेताओं का कहना है कि अलिगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय का इतिहास अच्छा नहीं रहा है। इस विश्वविद्यालय के कारण ही भारत का विभाजन हुआ। आज भी विश्वविद्यालय में पृथक्तावादी शक्ति सक्रिय है। अलिगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय का इतिहास वेहद काला है। जहां एक ओर दुनिया का सबसे बडा मोदरसा बरेली और देवबंद ने देश के विभाजन का विरोध किया था वही यह विश्वविद्यालय देश विभाजनकारी शक्तियों का केन्द्र हुआ करता था। इस प्रकार के विश्वविद्यालय का केन्द्र किशनगंज जैसे सामरिक और संवेदनशील जिले में खोला जाना देश की सुरक्षा के साथ खिलवार करना है।
सबसे अहम बात यह है कि पहली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के केन्द्रीय मानवसंसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने देश में अलिगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय की पांच शाखा खोलने की घोषण की थी। जिसमें बिहार का किशनगंज, पश्चिम बंगाल का मोर्सीदाबाद, महाराष्ट्र का पूणे, मध्य प्रदेश का भोपाल और केरल का मल्लापुरम को चयन किया गया था। लेकिन अभी तक किसी राज्य सरकार ने विश्वविद्यालय केन्द्र स्थापना के लिए जमीन आवंटित नहीं की है। उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कौम्यूनिस्ट पाटी की सरकार है, मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, केरल में भी सीपीएम की ही सरकार है और महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार है। किसी सरकार ने सुरक्षा तो किसी ने जमीन नहीं होने का बहाना बना अभी तक जमीन नहीं दिया है लेकिन बिहार सरकार ने जमीन आवंटित कर एक रहस्य को जन्म दिया है।पूरे मामले पर सरसरी निगाह डालने और किशनगंज में घटी घटनाओं की व्याख्या के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि आखिर किशनगंज को ही पहला निशाना क्यों बनाया गया है।किशनगंज विश्वविद्यालय केन्द्र का दूसरा पक्ष भी जानने योग्य है। आज से 25 साल पहले विश्वविद्यालय केन्द्र के लिए आवंटित भूमि को आदिवासियों में बांट दिया गया था। आदिवासी उसपर खेती कर रहे हैं। अब सरकार ने उन जमिनों को अधिग्रिहित कर एएमयू को आवंटित कर दी है। इससे यह साबित होता है कि नितिश सरकार को गरीब और कमजोर वर्ग के लोगों की चिंता नहीं है अब वे भी सत्ता का स्वाद चख चुके हैंऔर तूस्टिकरण के माध्यम से मुस्लिम को पटा फिर से सत्ता पर काबीज होना चाहते हैं। विश्वविद्यालय को कुल 247.30 एकड जमीन दी गयी है। कोचाधामन और किशनगंज प्रखंड के जिस क्षेत्र की जमीन इस विश्वविद्यालय को दी गयी है वहां आदिवासियों की संख्या अच्छी है। ऐसे में स्थानीय आदिवासियों के अस्तित्व पर भी संकट उत्पन्न हो गया है।कुल मिलाकर ऐसे ही कुछ आधारभूत मुद्दों को लेकर बिहार के छात्र सरकार के खिलाफ दो दो हाथ करने में लगे हैं। बिहार का वर्तमान छात्र आन्दोलन किस करवट बैठेगा, इसपर अभी कुछ कह देना जल्दबाजी होगी लेकिन जिस प्रकार बिहार विद्यार्थी परिषद् ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला है उससे तो यह साबित हो गया है कि आगे इस आन्दोलन का प्रभाव राजनीतिक गठजोड पर भी पड सकता है।
सबसे अहम बात यह है कि पहली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के केन्द्रीय मानवसंसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने देश में अलिगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय की पांच शाखा खोलने की घोषण की थी। जिसमें बिहार का किशनगंज, पश्चिम बंगाल का मोर्सीदाबाद, महाराष्ट्र का पूणे, मध्य प्रदेश का भोपाल और केरल का मल्लापुरम को चयन किया गया था। लेकिन अभी तक किसी राज्य सरकार ने विश्वविद्यालय केन्द्र स्थापना के लिए जमीन आवंटित नहीं की है। उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कौम्यूनिस्ट पाटी की सरकार है, मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, केरल में भी सीपीएम की ही सरकार है और महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार है। किसी सरकार ने सुरक्षा तो किसी ने जमीन नहीं होने का बहाना बना अभी तक जमीन नहीं दिया है लेकिन बिहार सरकार ने जमीन आवंटित कर एक रहस्य को जन्म दिया है।पूरे मामले पर सरसरी निगाह डालने और किशनगंज में घटी घटनाओं की व्याख्या के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि आखिर किशनगंज को ही पहला निशाना क्यों बनाया गया है।किशनगंज विश्वविद्यालय केन्द्र का दूसरा पक्ष भी जानने योग्य है। आज से 25 साल पहले विश्वविद्यालय केन्द्र के लिए आवंटित भूमि को आदिवासियों में बांट दिया गया था। आदिवासी उसपर खेती कर रहे हैं। अब सरकार ने उन जमिनों को अधिग्रिहित कर एएमयू को आवंटित कर दी है। इससे यह साबित होता है कि नितिश सरकार को गरीब और कमजोर वर्ग के लोगों की चिंता नहीं है अब वे भी सत्ता का स्वाद चख चुके हैंऔर तूस्टिकरण के माध्यम से मुस्लिम को पटा फिर से सत्ता पर काबीज होना चाहते हैं। विश्वविद्यालय को कुल 247.30 एकड जमीन दी गयी है। कोचाधामन और किशनगंज प्रखंड के जिस क्षेत्र की जमीन इस विश्वविद्यालय को दी गयी है वहां आदिवासियों की संख्या अच्छी है। ऐसे में स्थानीय आदिवासियों के अस्तित्व पर भी संकट उत्पन्न हो गया है।कुल मिलाकर ऐसे ही कुछ आधारभूत मुद्दों को लेकर बिहार के छात्र सरकार के खिलाफ दो दो हाथ करने में लगे हैं। बिहार का वर्तमान छात्र आन्दोलन किस करवट बैठेगा, इसपर अभी कुछ कह देना जल्दबाजी होगी लेकिन जिस प्रकार बिहार विद्यार्थी परिषद् ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला है उससे तो यह साबित हो गया है कि आगे इस आन्दोलन का प्रभाव राजनीतिक गठजोड पर भी पड सकता है।
Sunday, March 7, 2010
आप कब बन रहे हैं "प्रेस" वाले
मिडिया लोकतंत्र का चोथा स्तम्भ जिससे जुडा एक बहुँत बड़ा तबका आज अपनी विश्वनीयता साबित करने के लिए बेचेन है|यह स्थिति इस कारण पैदा हुई की कुछ ऐसे लोग प्रेस वाले हो गए जिन्हें केवल और केवल लक्ष्मी से मतलब है,लक्ष्मी के लिए मिडिया की सारी आचार संहिता को दरकिनार करा दिया गया है | हो भी क्यों नहीं जिस प्रेस का कार्ड लेकर आज वे पत्रकार बन समाज में विशिष्ट बने हुए है, किसी भी कार्यक्रम में उन्हें आगी वाली कुर्सी मिलती है |खबर के कलेक्सन के लिए पहुचने पर आयोजक द्वारा गिफ्ट भी दिया जाता है | उस कार्ड के लिए रकम खर्च करना पड़ा है | वेसे भी जिसे देखो आज ‘प्रेस’ वाला होना चाहता है। क्योकि ‘प्रेस’ होना आसान भी बहुत हो गया है। किसी समाचार-पत्र के कार्यालय में जाए ब्यूरो चीफ की थोडा चमचागिरी करे , कुछ खर्च और कुछ दिनों में आपके पास चमचाता हुई अखबार का आई-कार्ड आ जाएगा। इस तरह भले ही आप साधारण संवाददाता ही बन पाए । परन्तु हे तो पत्रकार ही | ओर जरुरी नहीं की जिस पेपर के आप संवाददाता बने हो उसमे आप समाचार प्रेषण का काम करे ही | यह काम ब्यूरो चीफ ही कर देगे | आखिर उन्हें भी तो भविष्य देखना है | आप बिच बिच में केवल उअनका ख्याल कर लेवे | कार्ड हाथ में आने के बाद अब आपके घर में जितने भी वाहन हैं, सब पर शान से प्रेस लिखवाएं और सड़कों पर रौब गालिब करते घूमें। इससे कोई मतलब नहीं है कि आपको अपने हस्ताक्षर करने आते हैं या नहीं। कभी एक भी लाईन लिखी है या नहीं। आपके पास किसी अखबार का कार्ड है तो आप प्रेस वाले हैं। इलाके में हद तो यह है कि गैर कानूनी काम करने वाले भी अपने आपको पत्रकार कहते है , अखबारों के कार्ड रखते हैं। पैसे देकर कार्ड बनाने वाले अखबारों के ब्यूरो चीफ भी अपन जान बचाने के लिए कार्ड के पीछे एक यह चेतावनी छाप देते हैं कि ‘यदि कार्ड धारक किसी गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त पाया जाता है तो उसका वह खुद जिम्मेदार होगा और उसी समय से उसका कार्ड निरस्त हो जाएगा।’ जिन अखबारों के नाम में ‘मानवाधिकार’ शब्द का प्रयोग हो तो उस अखबार के कार्ड की कीमत पांच से दस हजार रुपए तक हो सकती है। इसकी वजह यह है कि आप अखबार वाले के साथ ही मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हो जाते हैं। लोगों की आम धारणा है कि पुलिस और प्रशासन ‘प्रेस’ और ‘मानवाधिकार’ शब्द से बहुत खौफ खाते हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती। अधिकतर पत्रकार पत्रकारिता कम चाटुकारिता ज्यादा करते हैं.अपने वरिष्ठ सहयोगियों का सम्मान करना बुरा नहीं है और ऐसा करना भी चाहिए लेकिन इतना नहीं कि उसकी श्रेणी बदल जाए और वह चापलूसी बन जाए | इलाके में कई ऐसे पत्रकारों को लोग जानते है जिन्होंने केवल चापलूसी के चलते अपनी पहचान बनाई है |ओर खाक पति से आज मालामाल हो गए है |प्रेस की इसी महिमा के कारण सड़कों पर चलने वाली प्रत्येक दूसरी या तीसरी मोटर साइकिल, स्कूटर और कार पर प्रेस लिखा नजर आ जाएगा। यकीन नहीं आता तो शहर की किसी व्यस्त सड़क पर ही नहीं छोटे कसबे की किसी भी सडक पर पांच-दस मिनट बाद खड़े होकर देख लें।
‘प्रेस’ से जुड़ने की लालसा के पीछे का कारण भी जान लीजिए। शहर में वाहनों की चैकिंग चल रही है तो वाहन पर प्रेस लिखा देखकर पुलिस वाला नजरअंदाज कर देता है। मोटर साइकिल पर तीन सवारी बैठाकर ले जाना आपका अधिकार हो जाता है, क्योंकि आप प्रेस से हैं। किसी को ब्लैकमेल करके भारी-भरकम पैसा कमाने का मौका भी हाथ आ सकता है। प्रेस की आड़ में थाने में दलाली भी की जा सकती है। देखा, है ना प्रेस वाला बनने में फायदा ही फायदा। तो आप कब बन रहे हैं, प्रेस वाले?
‘प्रेस’ से जुड़ने की लालसा के पीछे का कारण भी जान लीजिए। शहर में वाहनों की चैकिंग चल रही है तो वाहन पर प्रेस लिखा देखकर पुलिस वाला नजरअंदाज कर देता है। मोटर साइकिल पर तीन सवारी बैठाकर ले जाना आपका अधिकार हो जाता है, क्योंकि आप प्रेस से हैं। किसी को ब्लैकमेल करके भारी-भरकम पैसा कमाने का मौका भी हाथ आ सकता है। प्रेस की आड़ में थाने में दलाली भी की जा सकती है। देखा, है ना प्रेस वाला बनने में फायदा ही फायदा। तो आप कब बन रहे हैं, प्रेस वाले?
Sunday, February 21, 2010
किशनगंज: शांति और भाईचारे का स्वर्ग
कहा जाता है कि खगड़ा नवाब मोहम्मद फकिरुद्दीन मुग़ल काल में यहाँ के जमीदार थे , उस दोरान एक हिंदू संत प्रवास के दोरान आराम करने के लिए कामना के साथ यहां पहुंचे. | लेकिन जब उन्हें पता चलेगा कि जगह का नाम आलमगंज है, नदी का नाम रमजान ,ओर जमीदार मोहम्मद फकिरुद्दीन तो उन्होंने प्रवेश से इनकार कर दिया. | यह जानकारी जब नबाब को मिली तो वी बहुत चिंतित हुए तुरंत उन्होंने रमजान नदी के सटे एक हिस्से को कृष्ण गंज नामकरण कर दिया , जो कालांतर में किशनगंज बन गया |
इसी किशनगंज में महाभारत.के दोरान पांडवो ने अज्ञात वाश का समय कटा था | पांडवो के अज्ञात वाश की कहानिया आज भी लोगो को किशनगंज के स्वर्णिम इतिहास की यद् दिलाता है |पालवंश ,गोर वंश ,भूटिया ,एवं नेपालियों के साशन भी यहाँ के लोगो ने देखे है | शायद सम्पूर्ण विश्व में यही एक मात्र इलाका है जहा भगवान सूर्य के नाम पर सुरजापूरी भाषा का उदय हुआ | ऐतिहासिक अभिलेख कहते हैं, कि मुगल काल के दौरान किशनगंज नेपाल के साम्राज्य का हिस्सा था और नेपालगंज के रूप में जाना जाता था | यहा की साशन ब्यवस्था के लिए मुगल बादशाह शाह आलम ने मोहम्मद रजा की नियुक्ति की. मोहम्मद रजा ने नेपालगढ़ किले पर कब्ज़ा कर लिया और नाम को बदलते हुए आलमगंज रखा गया | हर साल ऐतिहासिक Khagra मेला जो पशु मेले के रूप में प्रसिद्ध है Fakiruddin,के आवास के निकट आयोजित की जाती थी , जो आज भी आयोजित किया जाता है |
यही किशनगंज जो 14 जनवरी १९९० को पूर्णिया जिले से अलग होकर एक जिले के रूप में अस्तित्व में आया | कश्मीर घाटी के बाद भारत की दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला किशनगंज जहा ७० प्रतिशत मुस्लिम आबादी रहती है. मुसलमानों के बहुमत के बावजूद, गैर मुसलमान यहाँ के पूर्ण शांति से रह रहे हैं| मुसलमान, हिंदुओं, एवं ईसाई धर्म के लोग आपस में जेसे रहते है वह साम्प्रदायिक सौहार्द का एक उत्कृष्ट उदाहरण है | . गुजरात , भागलपुर दंगे या अन्य ऐसी सांप्रदायिक दंगों के दोरान यहाँ लोगों की मानसिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा |. किशनगंज में मंदिर, मस्जिद और दरगाह सेकड़ो की सख्या में मोजूद है . यहाँ की सुबह मंदिरों में भजन और मस्जिद के Fazr और Azan के साथ शुरू होता है. चाहे ईद हो या होली यहाँ का माहोल पूरी तरह से एक अलग तरह का हो जाता है सभी लोग समान उत्साह के साथ सभी त्यौहार मनाते हैं.
. भौगोलिक रूप में व्यावसायिक के रूप में अच्छी तरह से किशनगंज कृषि क्षेत्र में है. किशनगंज की मिट्टी उपजाऊ और महानंदा प्रमुख नदी है और लगभग आधा दर्जन उसकी सहायक नदिया है , . किशनगंज को बिहार की चेरापुजी भी कहा जाता है | वर्षो पूर्व पोठिया के पनावाडा में छोटी सी जमीं पर शुरू हुई चाय की खेती ने आज किशनगंज को बिहार में चाय के जनक के रूप स्थापित कर दिया है | आज जिले के सेकड़ो एकड़ भूमि में चाय की खेती हो रही है | कुल मिलाकर यदि यह कहा जय तो गलत नहीं होगा " अगर धरती पर स्वर्ग है तो यहाँ हे , भले ही ये शब्द सम्राट जहांगीर ने कश्मीर घाटी और उसके बागानों की खूबसूरती का उल्लेख करते हुए कही थी परन्तु छोटे से जिले किशनगंज की हरियाली को देख कर भी यही लगता है बेशक, किशनगंज में बर्फ से ढकी घाटिया , नदियों, झीले जेसी खूबसूरती पहाड़ों के साथ नहीं है, देश के सबसे पिछड़े जिलों में से एक, किशनगंज शांति और भाईचारे का स्वर्ग है. आज जब पूरा देश सांप्रदायिकता के अभिशाप से पीड़ित है, किशनगंज अभी भी अपनी सदीयो पुराने शांति एवं भाईचारे को जीवित रखे है
Monday, February 1, 2010
राहुल का किशनगंज दोरा | क्या मना पाएँगे रूठे वोट बैंक को ?
विधान सभा चुनाव नजदीक आते ही कांग्रेश के युवराज को बिहार की याद आ गई है |उस बिहार की जहा कांग्रेश ने नई करवट लेनी शुरू कर दी है | राहुल इसके नेता है | कभी कांग्रेश का गढ़ रहे बिहार में दलित एवं अल्पसंख्यक वर्ग के मतदाता कांग्रेश का जनाधार माने जाते रहे है | उस बिहार में अपने पावो पर कांग्रेश को खड़ा करने की इच्छा शक्ति के कारण राहुल ने जिस युवा कांग्रेश को आगे रख कर बिहार में अपनी गतिविधि येन चुनाव के पहले बढ़ा दी है वह उन राजनेतिक डालो के लिए चिंता का कारण बनाता जा रहा है जो हाल के दिनों में सिमांचल में दलित एवं अल्पसंख्यक वर्ग के वोट् बैंक की जरिए राजनीति कर रही थी | भारत के सर्वाधिक अल्पसंख्यक बहुल जिले में सुमार किशनगंज में पहली बार राहुल गांधी के दो फरवरी को को होने वाले कार्यक्रम के कई मैंने है |
कांग्रेश यह जानती है की , 90 के दशक में मंडल एवं कमंडल की आंधी में कांग्रेस के मजबूत वोट बैंक रहे दलित एवं अल्पसंख्यक जब तक कांग्रेस के साथ वापस नहीं आएगे |बिहार में पुराने रुतबे में आने उसके लिए मुश्किल है | राहुल के इस दौरे को अपने परपरागत बोट बेंक को पाने की छ्ट पटाहट के रूप में देख जा रहा है | मंडल एवं कमंडल के मुद्दे देश की राजनीति में बहुत पीछे छुट गए है | युवा व मध्य वर्ग एक नै पहचान खोज रहा है | कांग्रेश राहूल को आगे रख युवा व मध्य वर्ग को विकल्प देने का दवा कर रहा है | सच्चर कमेटी की सिफारिश, सूचना का अधिकार और नरेगा जैसी योजनाओं को भी राहुल गांधी से जोड़ा जा रहा है। वहीं राहुल गांधी भी अल्पसंख्यकों की राजनीति करते हुए यहां पर अल्पसंख्यक सम्मेलन कर रहे हैं। यह सर्वविदित है की किशनगंज लोकसभा क्षेत्र सहित पूरा सीमांचल शुरूआती दौर से ही कांग्रेस का गढ़ रहा है। कंग्रेशी राहुल के इस दोरे के जरिए १९८० के दशक में कांग्रेश के रुतबे का सपना देखने लगे है |आंकड़े भी गवाह है कि 1957 से 1989 के बीच हुए आठ संसदीय चुनाव में छह बार कांग्रेसी उम्मीदवार किशनगंज से जीत कर दिल्ली पहुंचे हैं जिनमें 1957 एवं 1962 में मो. ताहीर, 1971 में जमीलुर रहमान, 1980 एवं 1984 जमीलुर रहमान तथा 1989 में एम.जे. अकबर । इसके बाद मंदिर मस्जिद के झगड़े में यहाँ के लोगो ने कांग्रेश की संदेहास्पद भूमिका के कारण यहा के लोगो ने कांग्रेश को जो अलविदा कहा २००९ के चुनाव में कांग्रेश स्थानीयता की भावना को भुना कर ही वापस आपाई इसी दोरान भाजपा जेसी हिंदुत्व वादी दल से १९९९ , में पहली वार भाजपा उम्मीदवार जीत कर दिल्ली पहुचे |
आज पुन: कांग्रेश इस इलाके में अपनी खोई हुई ज़मीन की तलाश में जुटी है | किशनगंज में अल्पसंख्यक युवा सम्मलेन के जरिए अल्पसंख्यको को खुश करने में कामयाब हो जाते है आने वाले विधान सभा चुनाव में सिमांचल की तस्वीर कुछ अलग होगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता है |
Saturday, January 23, 2010
किसी भी समय ग्राहक करा सकता है गैस बुकिंग | सूचना अधिकार कानून के तहत खुली गैस एजेसियों की मनमानी की पोल |
एक सिलेंडर के उठाव के बाद अगले सिलेंडर की बुकिग के लिए २१ दिनों के अंतर की बात गैस एजेसियों द्वारा ग्राहकों को टालने के लिए किया जाता है | कानूनन गैस एजेसियों को ऐसा करने का अधिकार नहीं है | गैस की बुकीग सिलेंडर लेने के साथ करवाई जा सकती है | गैस एजेसियों द्वारा २१ दिनों में बुकिंग के दावे की पोल खोली सुचना के अधिकार कानून ने | इन्डियन आयल कारपोरेशन लिमिटेड के पटना कार्यालय से एल पि जी गैस सिलेंडर के गोदाम एवं होम डिलेवरी के दर का ब्योरा भी मांगा गया था | पूरी जानकारी गैस एजेसियों के मनमानी की पोल खोलने को काफी है| इडियन आयल के अधिकारी एस के सिन्हा के हस्ताक्षर के जरिए उपल्ब्ध करवाई गई जानकारी के अनुसार यदि गोदाम से कोई उपभोक्ता सीधे गोदाम से डिलेवरी लेता है तो उसे प्रति रिफिल आढ़ रुपया छुट मिलेगी | दी गए जानकारी में यह स्पष्ट उल्लेख है की रिफिल मिलने के बाद अगले रिफिल की बुकिंग के लिए कोई समय बाध्यता नहीं है | गैस एजेसियों के कार्य अबधि के अन्दर ग्राहक किसी भी समय अपनी आवश्यकतानुसार अगले रिफिल के लिए बुकिंग कर सकता है |
Friday, January 22, 2010
क्या खुलेगा नेताजी की मोंत का राज ?
हमेशा की तरह इस मर्तबा भी 23 जनवरी को नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्मदिन हर साल की तरह ही मनाया गया और रस्मी तौर पर उन्हें याद किया गया , पर आजादी के बासठ साल से ज्यादा गुजर जाने के बावजूद 23 जनवरी 1897 को जन्मे भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इस नायक की मौत के बारे में सही जानकारी अब तक लोगों को नहीं मिल पाई है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जान आखिर कैसे गई? यह एक ऐसा सवाल है, जो हर हिंदुस्तानी को सोचने पर मजबूर कर देता है। बीते दिनों सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारियों के बाद इस अनसुलझी पहेली के तार और ज्यादा उलझते नजर आ रहे हैं। पर सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर नेताजी की मौत की गुत्थी को सुलझाने के लिए कोई सुगबुगाहट नजर नहीं आ रही है। सरकारी महकमा कहता आया है कि 1945 में हुई विमान दुर्घटना में ही नेताजी की मौत हो गई। पर इस महान देशभक्त में रुचि रखने वालों और नेताजी पर अध्ययन करने वालों का दावा है कि नेताजी की जान विमान हादसे में नहीं गई थी। पर अहम सवाल यह है कि ये दावे तथ्यों और तर्को की कसौटी पर कितना खरे उतरते हैं? 18 अगस्त 1945 को कथित तौर पर ताईवान में एक विमान दुर्घटना हुई थी। भारत सरकार कहती रही है कि इस हादसे में मरने वालों में नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी शामिल थे। अब तक यह कहा जाता रहा है कि महात्मा गांधी से बगावत करके जापान की मदद से आजाद हिंद फौज का गठन करके फिरंगियों के खिलाफ भारत की आजादी के लिए जंग छेड़ने वाले नेताजी की अस्थियां जापान के रेंकोजी टेंपल में रखी हुई हैं। नेताजी की मौत की गुत्थी को सुलझाने के लिए बनी शाहनवाज कमेटी और खोसला कमीशन की रिपोर्ट भी इसी बात की पुष्टि करती है। पर मामले का दूसरा पहलू हैरत में डालने वाला है। अब यह कहा जा रहा है कि नेताजी की मौत उस विमान हादसे में नहीं हुई थी। अब इस पर भी विवाद पैदा हो गया है कि विमान दुर्घटना हुई भी थी या नहीं। उस कथित विमान हादसे पर सवालिया निशान खुद ताइवान सरकार लगा रही है। ताईवान सरकार ने कहा है कि 18 अगस्त 1945 को वहां कोई विमान हादसा नहीं हुआ था। ऐसा होता तो ताईवान के अखबारों में उस समय यह खबर जरूर छपी होती। वर्ष 1999 में एनडीए सरकार ने नेताजी की मौत की तहकीकात के लिए जस्टीस एमके मुखर्जी की अध्यक्षता में मुखर्जी आयोग का गठन किया। मुखर्जी आयोग ने भी इस बात की पुष्टि कर दी कि नेताजी की मौत उस कथित विमान हादसे में नहीं हुई थी। अहम सवाल यह है कि आखिर किस रिपोर्ट को सही माना जाए। एनडीए के नेता कहते रहे हैं कि नए तथ्यों के अधार पर मुखर्जी आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि नेताजी की मौत उस विमान हादसे में नहीं हुई। पर सियासी वजहों से कांग्रेस सरकार ने उस रिपोर्ट को खारिज कर दिया। इससे इतना तो साफ है कि एक महान देशभक्त की मौत पर भी अपने देश के नेता सियासत करने से बाज नहीं आए। सोचने वाली बात यह भी है कि आखिर कांग्रेस के राज में गठित कमेटी उसकी मर्जी के मुताबिक और एनडीए के राज में बनाई गई कमेटी उसकी विचारधारा के मुताबिक रिपोर्ट क्यों देती है? बड़ा सवाल यह है कि स्वतंत्रता की लड़ाई के एक महान नायक नेताजी के बारे में आजाद भारत के लोगों को सच्चाई का पता कब चल पाएगा? मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट आने के पहले भी नेताजी की मौत को लेकर खासा विवाद रहा है। कई लोग लंबे समय से यह दावा करते रहे हैं कि जापान के रेंकोजी मंदिर में रखी गई अस्थियां नेताजी की नहीं, बल्कि वह एक जापानी सैनिक की है, लेकिन सरकार इसे ही नेताजी की अस्थियां मानती रही है और जापान दौरे पर जाने वाले हिंदुस्तानी नेता भी इसी के आगे सिर झुकाते रहे हैं। अब यह बात खुल गई है कि जापान के रेंकोजी मंदिर में 1945 से संभाल कर रखी जा रही अस्थियां नेताजी की नहीं हैं। मुखर्जी आयोग ने इस बात की पुष्टि तो की ही, साथ ही इस मसले पर 1965 में बनाई गई शाहनवाज जांच समिति में भी मतभेद रहा है। शाहनवाज समिति के तीसरे सदस्य नेताजी के बड़े भाई सुरेश चंद्र बोस थे। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में साफ-साफ लिखा है कि इस बात का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर यह मान लिया जाए कि टोक्यो के रेंकोजी मंदिर में रखी अस्थियां नेताजी की हैं। नेताजी को जिस कथित विमान हादसे का शिकार बताया जाता है, उसमें उनके साथ लेफ्टिनेंट कर्नल हबीबुर्रहमान खान भी थे। उनसे इस बारे में कई बार पूछताछ की गई। उन्होंने बार-बार यही कहा कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में बुरी तरह जल गए थे और इसके बाद उनकी मौत अस्पताल में हो गई थी। सुभाष चंद्र बोस से जुड़े विषयों पर काम करने वाली संस्था मिशन नेताजी के लोगों ने जब इस बारे में तथ्यों को खंगाला तो उन्हें इस बात के पुख्ता प्रमाण मिले कि रहमान ने नेताजी के बारे में जो कहा वह सच नही था। 1946 में जब उन्हें अपने मित्र और नेताजी के सचिव मेजर ई भास्करन ने नेताजी की मौत के बारे में कुरेदा तो रहमान ने कहा था कि उन्होंने नेताजी को वचन दे रखा, लिहाजा इस बारे में कुछ नहीं कह सकते। सूचना के अधिकार के तहत जब जानकारी मांगी गई कि जापान के रेंकोजी मंदिर में रखी गई अस्थियों को भारत लाने के लिए सरकार क्या कर रही है? इस सवाल का जो जवाब मिला, उससे सरकार की मंशा पर सवालिया निशान लगता है। जवाब में कहा गया कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अस्थियों को भारत लाने के संबंध में अभी तक कोई फैसला नहीं लिया गया है। जब सरकार मानती है कि वे अस्थियां नेताजी की ही हैं तो सवाल यह उठता है कि आखिर उन्हें अब तक भारत क्यों नहीं लाया गया? एक सरकारी फाइल में तो उस समय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के सचिव रहे एमओ मथाई ने लिखा है कि भारत के विदेश मंत्री ने टोकियो के भारतीय उच्चायोग से नेताजी की अस्थियों और नेताजी के कुछ और सामानों के साथ उनके पास से मिले तकरीबन दौ सौ रुपये रिसिव किए थे। मालूम हो कि उस समय विदेश मंत्रालय भी जवाहर लाल नेहरू के पास था। अहम सवाल यह है कि इन अस्थियों का क्या किया गया? क्या ये अस्थियां नेताजी के परिजनों के पास पहुंची? इन सवालों का जवाब सरकार के पास नहीं है। यह बात भी सामने आई है कि रेंकोजी मंदिर के पुजारी ने 23 नवंबर 1953 को प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को पत्र लिखकर बताया था कि 18 सितंबर 1945 से नेताजी की अस्थियां वहां रखी जा रही हैं तो उस समय नेताजी की अस्थियों को वापस लाने के लिए आवश्यक कदम क्यों नहीं उठाए गए? जाहिर है 1945 से लेकर अब तक नेताजी के मामले में सरकार का रवैया गैर-जिम्मेदराना रहा है। आखिर देश के एक महान नेता और स्वतंत्रता सेनानी नेताजी के बारे में सच देश की जनता के सामने आ पाएगा? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब किसी के पास नहीं है। मौजूदा सरकार भी इस दिशा में कुछ कराती नजर नहीं आती |
भारत नेपाल संधि में बदलाव क्यों
विदेश मंत्री एसएम कृष्णा द्वारा भारत-नेपाल संधि की समीक्षा से सहमति जताने के बाद नेपाल के माओवादियों को यह आरोप वापस ले लेना चाहिए कि भारत समीक्षा के पक्ष में नहीं है। वैसे 1950 के बाद परिस्थितियां काफी बदल चुकी हैं, लेकिन जैसा कृष्णा ने कहा है, इसकी पहल नेपाल को ही करनी होगी। उन्हें अपने प्रस्ताव के साथ आगे आना होगा। नेपाल की वर्तमान सरकार ने इसकी औपचारिक मांग नहीं की है, किंतु माओवादी इसकी मांग लंबे समय से कर रहे हैं। जब माओवादी प्रमुख प्रचंड प्रधानमंत्री के रूप में सितंबर 2008 में भारत आए थे, तब भी नेपाल में कहा गया था कि वे भारत से संधि की समीक्षा की मांग करेंगे। यह बात अलग है कि आठ महीने तक सरकार चलाने के बावजूद औपचारिक मांग कभी आई नहीं। दरअसल, इस पर सरकार केअंदर ही एक राय नहीं थी। आज भी ऐसा ही है, पर माओवादियों ने इसे अपने भारत विरोधी प्रचार के एक प्रमुख अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया है। वे इस संधि को नेपाल के हितों के विरुद्ध एवं भारत के हितों का संरक्षण करने वाली मानते हैं। उनका कहना है कि भारत ने नेपाल को अन्यायपूर्ण संधि के पालन के लिए करीब पिछले 60 सालों तक बाध्य किया है। ऐसे आरोपों पर कोई टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन नेपाल के लोग यह न भूलें कि भारत ने 1950 की शांति एवं मित्रता संधि द्वारा अंग्रेजों के साथ हुई सभी संधियों का अंत कर नेपाल को समानता का दर्जा दिया। अंग्रेजों के साथ की गई 1923 की संधि में नेपाल को संप्रभु देश अवश्य स्वीकार किया, किंतु यह समानता पर आधारित नहीं थी। प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की ओर से लड़ते हुए मारे गए करीब 20 हजार गोरखा सैनिकों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए अंग्रेजों ने पहले एक लाख और बाद में दो लाख रुपये सालाना नेपाल को देना आरंभ किया था। 1950 की संधि की माओवादी या नेपाल के अन्य भारत विरोधी जो व्याख्या करें, पर 60 वर्ष पहले यह इस बात का उदाहरण था कि शीघ्र गुलामी से मुक्त हुआ देश अपने पड़ोसी के साथ किस प्रकार सम्मानजनक व्यवहार कर सकता है। संधि पर हस्ताक्षर राणा काल में हुआ, लेकिन यह लागू हुआ 1951 में लोकतंत्र की स्थापना के बाद। इसमें दोनों देशों के नागरिकों को एक-दूसरे के यहां राजनीति के अलावा वे सारे अधिकार दिए गए जो केवल स्वाभाविक नागरिकों को ही मिल सकता था। बसने से लेकर, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, नौकरी, शादी-विवाह आदि सभी अधिकार दिए गए। उस समय की दृष्टि से देखें तो संधि से नेपालियों को ज्यादा लाभ था, क्योंकि शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी आदि के लिए भारत में ही अवसर थे। भारत ने आजादी के साथ नेपाल सरकार के हर अवसर पर अंग्रेजों का साथ देने की भूमिका को भुला दिया, क्योंकि नेपाली जनता का बड़ा वर्ग आजादी के संघर्ष में भारतीयों के साथ था। इस संधि में भारत ने नेपाल के सुरक्षा व्यय के साथ सेना के प्रशिक्षण का दायित्व अपने सिर लिया। संधि संपन्न होने के बाद दोनों देशों के बीच कुछ मुद्दों पर और बातचीत हुई और अंतत: कुछ बिंदु जोड़े गए, जिनमें एक यह था कि अगर नेपाल अपने प्राकृतिक संसाधनों के विकास या किसी औद्योगिक प्रतिष्ठान के लिए विदेशी सहायता चाहता है तो वह पहले भारत सरकार या किसी भारतीय को प्राथमिकता देगा, लेकिन ऐसा तभी होगा, जब भारत या भारतीय द्वारा ऑफर शर्त विदेशी शर्त से नेपाल के लिए कम लाभदायक नहीं होंगे। इसमें भी संयुक्त राष्ट्र संघ या अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के संदर्भ में यह बिंदु लागू नहीं होगा। इस बिंदु की आप किसी तरह व्याख्या कर सकते हैं। इसी प्रकार नेपाल सरकार यदि अपनी सुरक्षा के लिए दूसरे देशों से शस्त्र आदि भारत के रास्ते मंगाना चाहे तो ऐसा वह भारत की सहमति एवं उसके सहयोग से ही कर सकता है। यह एक समानता की संधि थी, जिसमें दोनों बाहरी आक्रमण के कारण एक-दूसरे की सुरक्षा पर खतरे को सहन नहीं करने और दोनों सरकारों के बीच मित्रतापूर्ण संबंधों को तोड़ने वाली या गलतफहमी पैदा करने वाली पड़ोसी देशों की गतिविधियों की सूचना देने के प्रति वचनबद्व हैं। नेपाल में इस संधि के खिलाफ आवाजें बीच-बीच में उठतीं रहीं हैं। 1995 में नेपाल के कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री मनमोहन अधिकारी ने भारत यात्रा के दौरान संधि की समीक्षा करने की मांग की, पर औपचारिक अनुरोध नहीं आया। वैसे भी 1950 की मूल संधि में परिवर्तन हो चुका है। अब व्यापार एवं पारगमन संधि उसका भाग नहीं है। विरोधी जानते हैं कि 1978 में नेपाल की मांग पर अलग संधि हुई। 1988 में नेपाल के रवैये के कारण 23 मार्च 1989 में संधि समाप्त हो गई थी और नेपाल संकट में घिर गया था। लोकतंत्र आने के बाद जून 1990 में नेपाली प्रधानमंत्री कृष्ण प्रसाद भट्टराई एवं भारतीय प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के बीच नई दिल्ली में भारत-नेपाल विशेष सुरक्षा संबंध स्थापित हुआ और दिसंबर 1991 में प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोईराला की भारत यात्रा के दौरान व्यापार और पारगमन संधि पर हस्ताक्षर किया गया। उस दौरान अन्य आर्थिक समझौते भी हुए। इस समय की व्यापार और पारगमन संधि एनडीए के शासनकाल में 6 जनवरी 1999 को हुई थी। इसके प्रावधान के मुताबिक छह महीने पूर्व किसी भी पक्ष द्वारा नोटिस नहीं देने पर यह हर बार सात वर्ष के लिए आगे बढ़ता जाएगा। दोनों पक्षों की सहमति से इसमें संशोधन एवं परिवर्तन का प्रावधान समाहित है। कोई भी पक्ष नोटिस देकर ऐसा कर सकता है। नेपाल यदि इसमें परिवर्तन चाहता है तो उसे नोटिस देना चाहिए। मजे की बात यह कि विरोधी व्यापार एवं पारगमन संधि पर कुछ नहीं बोल रहे हैं। आखिर दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, इसलिए समीक्षा दोनों की होना चाहिए। 1950 में नेपाल का ही आग्रह था कि भारत के उद्योगपति, व्यापारी, तकनीशियन, इंनजीनियर आदि उसके देश आकर उद्यम करें। आज वहां के कारोबार एवं उद्योग में भारतीयों की संख्या पर आपत्ति उठाई जा रही है और इसकी जड़ शांति एवं मित्रता संधि को बताया जा रहा है। संधि में नेपाल को एक वर्ष का नोटिस देकर अलग होने का अधिकार है। वह चाहे तो ऐसा कर सकता है। हालांकि 1950 में सीमा शुल्क एवं पारगमन के जो 21 स्थान निश्चित हुए, उनमें बदलाव नहीं आया है। हां, लोगों ने अवश्य अनेक उप-पारगमन स्थल विकसित कर लिए हैं, जिनसे सामानों के साथ मनुष्य की भी तस्करी हो रही है, लेकिन यह संधि की नहीं, प्रशासनिक विफलता है। वास्तव में यह दुर्भाग्य है कि नेपाल की ओर से भारत के खिलाफ जो आवाजें उठती हैं, उनके पीछे तार्किकता से ज्यादा कुंठा होती है। पड़ोसी होने के नाते भारत नेपाल को हर संभव लाभ पहुंचाए एवं उसकी किसी कमजोरी का अपने लाभ के लिए उसके हितों के विरुद्ध उपयोग न हो, इससे हर भारतीय सहमत होगा। भारत के नौकरशाहों एवं राजनयिकों द्वारा कुछ गलतियां हुई हैं और इसका संदेश नेपाल में अच्छा नहीं है। यह दूर होना चाहिए। नेपाल एक स्थिर, खुशहाल एवं शांत देश के रूप में अग्रसर हो यह भारत के हित में भी है, लेकिन भारत के साथ जुड़ी हर चीज को विस्तारवाद का परिचायक बताने की जो कोशिश नेपाल में हो रही है, उसके परिणाम कभी अच्छे नहीं हो सकते। कोसी संधि को भी प्रचंड अन्यायपूर्ण बताते हैं, जबकि उसमें 1966 में संशोधन के बाद नेपाल को पूर्ण स्वामित्व हासिल है। ये 1996 की महाकाली संधि को भी भारत के हित में नेपाली हितों की बलि चढ़ाने वाला कहते हैं। यह संधि महाकाली नदी, जिसे भारत में शारदा नदी कहते हैं, के जल के समेकित विकास के उद्देश्य से किया गया था। इसमें पंचेश्र्वर बहुउद्देश्यीय परियोजना है, जिसके तहत एक पत्थर का बांध एवं दो बिजली प्रतिष्ठान बनने हैं, जिनसे 5500 से 6500 मेगवाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य है। माओवादी इसे महाकाली को बेचने वाली संधि कहते हैं। अगर इन सबमें संशोधन की जरूरत है तो होना चाहिए। किंतु इसके लिए भारत को गाली देना तो जरूरी नहीं है। वास्तव में संधि के अंत या संशोधन की मांग के पीछे जो सोच दिख रही है, वह चिंताजनक हैं। दोनों देशों के नागरिकों के संबंध किसी संधि के आधार पर नहीं बने हैं। आम नेपाली के मन में काशी में मृत्यु श्रेष्ठतम मानने का भाव है तो उसे किसी संधि से खत्म नहीं किया जा सकता। पशुपतिनाथ के दर्शन के बगैर ज्योतिर्लिग पूरे नहीं होने की सोच किसी संधि से पैदा नहीं हुई।
(लेखक अवधेश कुमार पत्रकार हैं)
(लेखक अवधेश कुमार पत्रकार हैं)
Tuesday, January 19, 2010
एड्स के मामले में मणिपुर की राह पर चला किशनगज
नेपाल सीमा पर बसे किशनगंज को एड्स के मामले में सबसे सवेदनशील मानते हुए सरकार व यूनीसेफ के सहयोग से किशनगंज में एड्स नियंत्रण कार्य 2003 में शुरू तो हुआ परन्तु जिले में एड्स रोगियों की बढती तादाद इस काम में जुटे सघतनो के कागजी काम पर मोहर लगते है. वर्ष 2009 तक 35 गुणा एचआईवी पोजिटिव मरीज की तादात जिले में हो जाना इस बीमारी के जिले में गभिर रूप ले लेने की तरफ ईशारा तो करता ही है ।सरकारी योजनाएओ की राशी का किस तरह बन्दर बाट होता है यह इसका जीता जागता उदहारण है , जिले में वर्ष 2009 में सरकारी आंकड़ा के मुताबिक 246 मरीज है जबकि वर्ष 2003 में यह संख्या सात था। कहते है न ज्यो-ज्यो ईलाज किया गया त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता गया । वर्ष 2002 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने यूनीसेफ को भारत के सात जिलों को एड्स की रोकथाम व लोगों में जागरूकता लाने के लिए बिहार के एक मात्र जिला को चुना और चरका प्रोग्राम चलाया गया। पांच वर्षो तक चरका प्रोग्राम जिले में संचालित था और करोड़ों रूपये पानी की तरह बहाया गया। जिसकी पुष्टि उपलब्ध कराये गए सरकारी आंकड़ों से होती है। वर्ष 2003 में एचआईवी पोजिटिव 07 जो 2004 में 15, 2005 में 47, 2006 में 132, 2007 में 151, 2008 में 153, 2009 में 246 से अधिक हो चुकी है। तमाम सरकारी व्यय एवं एनजीओ द्वारा किए गए प्रयास को मूंह चिढ़ाते ये आंकड़े समस्त प्रयासों की विफलता की कहानी कहते हैं। आंकड़ों का बढ़ता क्रम भविष्य की भयावह तस्वीर प्रस्तुत करता है। बिहार के पूर्वोत्तर कोने में स्थित किशनगंज जिला जो कि पूर्वोत्तर राज्यों का शेष भारत से जुड़ने का एक मात्र गलियारा है, मणीपुर की राह पर चल चुका है। यह एड्स के संदर्भ में उभर कर सामने आ रहा है। फिलवक्त जिले में एड्स कंट्रोल के लिए जिला एड्स कंट्रोल सोसाइटी के अलावे आधा दर्जन स्वयं सेवी संस्था काम कर रहा है। समस्याओं को जड़ में जाकर कारगर प्रयास करना होगा और बाहर से आने वाले लोगों पर सामाजिक जागरूकता लाकर आवश्यक स्वास्थ्य का परीक्षण करना नितांत आवश्यक है। एक सवाल सबों दिलों में कचोट रहा कि वर्ष 2002 में यूनीसेफ द्वारा किशनगंज में चरका परियोजना चलायी गई और करोड़ों रूपये खर्च के बाद नियंत्रण के बजाय बढ़ोत्तरी ही हुई । इससे साफ दर्शाता है कि चरका का कार्य जमीन के बजाय कागजों पर ही हुआ है
Tuesday, January 5, 2010
दो वक्त की रोटी के लिए बेचीं जा रही है सीमांचल की बेटियां
बारह साल, 15 साल या फिर 29 साल की विधवा, उम्र कुछ भी हो सकती है। आप रेखा कह ले या रूखसाना कोई फर्क नहीं पड़ता। घर में रखे या देहरी के बाहर खेत में बैलों की तरह जोत दें, आपकी मर्जी। शादी-शुदा युवा के गले बांध दें या किसी बूढ़े के। इन्हें सिर्फ दो वक्त की रोटी चाहिए । बदले में वे सब कुछ भुलाने को तैयार है, अपना घर, परिवार, मां-बाप, भाई-बहन सब कुछ ..। यह कोई फिल्मी कहानी का पटकथा नहीं बल्कि हकीकत है। यह कहानी अपने जुबानी सुना रही है पश्चिमी उत्तरप्रदेश के बुलंद शहर खुर्जा में अपने से 15 साल अधिक आयु के मर्द के पल्ले बांधी गई किशनगंज की रेखिया की। इसने सिर्फ इसलिए दुल्हन बनना स्वीकार किया क्योंकि शादी कर लेन से उसके मां-बाप को दस हजार रूपये मिलने वाले थे और खुद को अपेक्षाकृत बेहतर भविष्य । मां-बाप को तो पैसे मिल गए। रेखिया का यह सब्जबाग दिखाकर दुल्हन बनाया गया कि खुर्जा में तीस बीघे की जमीन है, अपना करोबार है, नौकर-चाकर है। आज रेखिया गोबर पाथने से लेकर बूढ़े हो चुके पति की सेवा तक सब कुछ करना पड़ता। मात्र 25 साल की आयु में खुद भी बूढ़ी जैसी दिखने वाली रेखिया घर से तो खूबसूरत सपने लेकर निकली थी, मगर नसीब को शायद यही मंजूर था, फिर क्या करती ? उन्होंने बताया कि खुर्जा, छतारी, अरनिया आदि कस्बा सहित ग्रामीण क्षेत्रों तक दलालों की खास किस्म सक्रिय है। इनका नेटवर्क बिहार के बिहार के सीमांचल, पश्चिम बंगाल के बोर्डर एरिया के ग्रामीण इलाकों में फैला है। इसके जरिये इन राज्यों के ग्रामीण इलाकों में ऐसे मजबूर परिवारों को ढूंढा जाता है जो आर्थिक तंगी के वजह से अपने बेटी के हाथ पीले नहीं कर पाते। इसी मजबूरी का फायदा उठाते हुए ये दलाल इन्हें बेटी बेचने को मजबूर करते है। उन्होंने बताया कि खुर्जा में फैले नेटवर्क के सदस्यों में अधिकांश या तो खुर्जा के पाटरी में करते है या किसी डेयरी फार्म में काम करते हुए अपने आंका के संपर्क में होते है। इसीक्रम में वे दुल्हे की तलाश भी करते है है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खुर्जा सहित आस-पास के अन्य क्षेत्रों में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिनकी या तो किसी वजह से शादी नहीं हो पाती है या पहली पत्नी के मर जाने के बाद दूसरी शादी करना चाहती है। खुर्जा में सक्रिय दलाल बिहार व बंगाल के तराई क्षेत्र किशनगंज, उत्तर दिनाजपुर जिले के सुदुर ग्रामीण क्षेत्रों ले जाते है। वहां उन्हें लड़किया दिखाते है और संतुष्ट कर उनके मां-बाप को उचित मुआवजा दिला देते है। वहां मां-बाप को बेटी के सुन्दर भविष्य का सब्जबाग दिखाया जाता है और आनन-फानन में शादी की रस्म अदा करा दी जाती है। वहां से ब्याह कर लाई लड़कियों के ख्वाब टूटने शुरू होते है, जब वे ससुराल पहुंचती है, जहां रानी बनकर राज करने आई थी, वहां परिवार वाले उनसे नौकरानी से भी बदत्तर बर्ताव करने लगते है। सुदूर प्रदेश से आयी लड़किया या तो यौन संतुष्टि का साधन मात्र बनकर रह जाती है या काम करने की मशीन
हरगोरी मंदिर ठाकुरगंज
उतर बंगाल एवं बिहार के सीमांत ठाकुरगंज शहर अवस्थित हरगोरी मंदिर में स्थापित है अद्भुत शिवलिग, जिसे पांडव काल के भग्नावेश के खुदाई के क्रम में वर्तमान मंदिर के पूर्वोतर कोण में पाया गया था . १०५ वर्ष पुराना यह मंदिर सम्पूर्ण विश्व में अनोखा है . वर्ष 2000 में यह स्वर्ण जयंती वर्ष मना चुकाने वाली इस शिवलिग में आधा जगत जननी माँ पार्वती की मुखाकृति अंकित है / इसकी स्थापना कविवर रविन्द्र नाथ टेगोर परिवार द्वारा बंगला संवत २१ माघ १९५७ यानी ४ फ़रवरी १००१ को की गई थी / इस हरगोरी मंदिर में स्थापित शिवलिग के सबंध में लोगो का कहना है की यह विश्व का एक अनोखा शिव लिंग है जिसमे शंकर के साथ माँ पार्वती विराजमान है / अब तक कई इसी घटनाए इस शिवलिग को पूजने वालो के साथ घटित हुई है जिस कारण इसे कामना लिंग के नाम से भी जाना जाता है | इस मंदिर के निर्माण से जुड़ा हर पहलू रोमानाचक है | जानकारों के अनुसार पशिम बंगाल का यह क्षेत्र बिहार में जाने के पूर्व कविवर रविन्द्र नाथ ठाकुर परिवार द्वारा १८९९ के जयेष्ट माह में जमीदारी का मुख्यालय बनाने के लिए वर्तमान मंदिर के पूर्वोतर कोण से ईटो की खुदाई प्रारंभ की गई | खुदाई के क्रम में मजदूरों ने तीन शिवलिंग पाया | तीनो शिवलिंगों को ठाकुर परिवार ने कलकत्ता में मोजूद अपने मुख्यालाया भेज दिया | इन तीनो शिवलिंगों में पार्वती की मुखाकृति वाले शिवलिंग को ठाकुर परिवार कोलकाता के टैगोर प्लेश में स्थापित करना चाहता था | लेकिन रात में दिखे स्वपन में टेगोर परिवार को ये मूर्ति वापस उसी स्थान पर स्थापित करने का निर्देश मिला | अगले ही दिन ठाकुर परिवार अपने पुरोहित भोला नाथ गांगुली के साथ यहाँ आकर १९०१ में ४ फरवरी को इस शिवलिंग की स्थापना की | छोटे से टिन के बने मकान में स्थपित इस हरगोरी लिंग के स्थापना काल को वहा मंदिर प्रांगण में लगी प्लेट प्रमाणित करने को काफी है |इन एक सो वर्षो में शिव भक्तो द्वारा एक भव्य मन्दिर का निर्माण वहा किया गया है जहा आज भी ठाकुर परिवार के पंडित भोला गांगुली का परिवार पुजारी के रूप में पूजा रत है | टैगोर परिवार पर स्वप्न का इतना प्रभाव पड़ा की जब जमींदारी की भूमि को सरकार को सोपा गया तब मंदिर के भूभाग को सरकार को नहीं सोपा गया | आज भी यहाँ भूमि टैगोर परिवार का ही हिस्सा है|
Saturday, January 2, 2010
पर्यावरण : लुप्त पक्षियों को पसन्द है क्षेत्र की आबोहवा
गरुड़ और गिद्ध के बाद चमगादड़ भी लुत्फ होने के कगार पर हैं। क्षेत्र के पुराने पीपल, बरगद तथा कदम के पेड़ों पर हजारों की संख्या में इन्हें देखा जा सकता है लेकिन विडम्बना ही कहा जाय इन चमगादड़ों के सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम नहीं किये जाने से खुलेआम इनका शिकार जारी है। विलुप्त छोटे बड़े गरुड़ से लेकर विलुप्त पक्षियों को बसेरा यहां पर है। गिद्ध को भी इस क्षेत्र में देखा जाता है। वैसे गरुड़ों को आम तौर पर देखा जा सकता है । इसी प्रकार कई बार सफेद गिद्ध को देखा गया है। अब इन दो पक्षियों की लुत्फ होने की कारणों पर यदि गौर किया जाय तो पक्षी वैज्ञानिक डा. डी.एन. चौधरी का कहना है कि डायक्लोफेनिक दर्द नाशक दवाई के कारण गिद्ध मरते गये। जानकारी के मुताबिक पशुओं में दर्द हेतु चिकित्सकों द्वारा पानी की तरह इन दवाईयों का प्रयोग पशुओं पर किया गया और इन मरे हुए पशुओं का मांस जब गिद्ध ने खाया तो इसका बुरा प्रभार उन पर पड़ा और धीरे-धीरे गिद्ध हमारे नजरों से ओझल होते गये। यही हाल गरुड़ों का भी है। गरुड़ों का शिकार कर लोग इसे मानव के कई बीमारियों के लिए उपयोग करते रहे, इन तमाम कारणों के साथ सबसे अहम कारण यह भी है कि विशाल वृक्षों का बड़े पैमाने पर सफाया होना जिससे इन पक्षियों के लिए घोंसला बनाकर रहना एवं प्रजनन करना समस्या बन गया। अब यदि चमगादर की बात करें तो ये रात में देखने वाला स्तनधारी पक्षी अंध विश्वासियों का शिकार बनते जा रहे हैं और इसे मारकर मानव के लिए कई बीमारियों में इसका औषधि के रूप में व्यवहार किया जा रहा है। जिससे यह पक्षी भी लुप्त होने के कगार पर हैं
रेल परियोजना : लोकसभा चुनाव में हारते ही 529 करोड़ की योजना ठप
सीमांचल के विकास को नई दिशा दे यहा के अवरुद्ध पड़े विकास को चालु करने वाली एक सौ एक दशमलव दो किमी लंबी गलगलिया-अररिया नई रेल लाइन परियोजना पटरी पर से उतर गई है। कुल 529 करोड़ की इस परियोजना में दो वर्ष बीतने के बाद भी अब तक केवल 11 करोड़ रुपये का कार्य हुआ है। रेलवे अधिकारी ही नहीं आम लोग भी परियोजना की शिथिलता के लिए भूमि अधिग्रहण में हो रही देरी को कारण मानते हैं। यहाँ यह बता दू की लालू यादव द्वारा दो वर्ष पूर्व 17 सितम्बर 07 को बिना भूमि अधिग्रहण के ही इस रेल परियोजना का शिलान्यास किया गया था। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले प्रखंड के दूराघाटी के समीप मेची नदी पर पुल निर्माण का कार्य प्रारंभ किया गया । यह कार्य पिछले छह माह यानी चुनावी नतीजों के बाद से ही बंद पड़ा है। आम आदमी इस समय चर्चा है कि कहीं शिलान्यास का यह खेल चुनावी तो नहीं था। सनद रहे कि लगभग 529 करोड़ की लागत से पूरी होने वाली इस परियोजना को पूरा होने से बिहार के पूर्वोत्तर भाग में स्थित अररिया एवं किशनगंज जैसे पिछड़े जिले में रेल यातायात की सुविधा उपलब्ध होगी। साथ ही वर्तमान में मौजूद मुरादाबाद, लखनऊ, मुगलसराय, पटना, बरौली, कटिहार, न्यूजलपाईगुड़ी मार्ग की तुलना में मुरादाबाद, लखनऊ, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, फारबिसगंज, अररिया, ठाकुरगंज, सिलीगुड़ी नये मार्ग द्वारा पंजाब एवं न्यूजलपाईगुड़ी के बीच की दूरी 50 से 60 किमी तक कम हो जाएगी। यह नई रेल लाइन बिहार के सीमावर्ती नेपाल के साथ पूर्वोत्तर भारत से दिल्ली के लिए वैकल्पिक मार्ग उपलब्ध कराएगी जो कभी विषम परिस्थितियों में राष्ट्र की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण साबित होगी ।सामरिक दृष्टिकोण के साथ क्षेत्र के विकास के लिए भी मील का पत्थर साबित होगा। ज्ञात हो कि इस नई रेल लाईन में 44.50 किमी अररिया एवं 56.70 किमी भूभाग किशनगंज जिले में पड़ता है। यह रेल लाइन यदि बना जाए तो पिछड़ा हुआ यह क्षेत्र विकास की नि इबादत लिख देता पर हर मुद्दे को राजनीति के चश्मे से देखे वाले राजनेताओ को इससे क्या मतलब
तस्करों के जाल में फंसी है भारत-नेपाल की सीमा
सीमाओं के प्रति संवेदनशील होने की आवश्यकता है। वरना बूंद बूंद से घड़ा भरता है, यह कहावत एक दिन किशनगंज जिले के नेपाल सीमा पर तस्कर सिद्ध करके दिखा देंगे। मामला नेपाल का माल भारत में और भारत का माल नेपाल में करने के लिए सीमा पर बसे लोगों के प्रयोग से जुड़ा है। बावजूद इसके सीमांचल की धरती बूंद बूंद की तस्करी के चलते मादक पदार्थो व जाली नोटों से पट रहा है। इसके लिए गंभीर चिंतन की अभी से ही जरूरत है। आये दिन नेपाल से लगी खुली सीमाओं के जरिए तस्कर जाली नोट, मादक पदार्थ, उर्वरक, हथियार इत्यादि गैर कानूनी चीजें हमारे मुल्क के अंदर दिन प्रतिदिन भेजते या ले जाते हैं। उर्वरक, सीमेंट, चावल, डालडा आदि खाद्य पदार्थों की तस्करी करने वाले के माध्यम से नींद व होश उड़ा देने वाली बात तो ये है कि, ये ही लोग चन्द रुपए की मजदूरी में करोड़ों रुपए मूल्य के हेरोइन, अफीम, ब्राउन सुगर के अलावे जाली नोट भी पहुंचा देते हैं।अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह में एसएसबी के 21 वीं बटालियन द्वारा दिघलबैंक सीमा पर भारतीयों से जब्त हेरोइन यह बताने के लिए पर्याप्त है कि दो समय की मुश्किल से रोटी की व्यवस्था करने वाले के पास से 50 लाख रुपए मूल्य की हेरोइन मिलती है। सूत्र बताते है कि सीमा पर बसे अधिकांश गरीब परिवार तस्करों के संकेत पर कुली की तरह काम कर रहे हैं। दिन भर की मजदूरी का दो-तीन गुना ज्यादा देकर ं सरहद पार बैठे तस्कर भारत के ही लोगों को भारत के खिलाफ जमकर उपयोग भारत के खिलाफ कर रहे हैं। सीमा की रक्षा से जुड़े विशेषज्ञ इसका एक कारण नेपाल की खुली सीमा मानते हैं, जिसे बाड़ के जरिए सील करना अतिआवश्यक है। पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के आतंकवादी, नेपाल स्थित माओवादी संगठन, बांग्लादेश और चीन में बैठे भारत के दुश्मन भी नेपाल की खुली सीमा का लाभ उठा रहे हैं
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