Pages

Sunday, March 7, 2010

आप कब बन रहे हैं "प्रेस" वाले


                             मिडिया लोकतंत्र का चोथा स्तम्भ जिससे जुडा  एक बहुँत बड़ा तबका आज अपनी विश्वनीयता साबित करने के लिए बेचेन है|यह स्थिति इस कारण पैदा हुई की कुछ ऐसे लोग प्रेस वाले हो गए जिन्हें केवल और केवल लक्ष्मी से मतलब है,लक्ष्मी के लिए मिडिया की सारी आचार संहिता को दरकिनार करा दिया गया है | हो भी क्यों नहीं जिस प्रेस का कार्ड लेकर आज वे पत्रकार बन समाज में विशिष्ट बने हुए है, किसी भी कार्यक्रम में उन्हें आगी वाली कुर्सी मिलती है |खबर के कलेक्सन के लिए पहुचने पर आयोजक द्वारा गिफ्ट भी दिया जाता है | उस कार्ड के लिए रकम खर्च करना पड़ा है | वेसे भी जिसे देखो आज ‘प्रेस’ वाला होना चाहता है। क्योकि ‘प्रेस’ होना आसान भी बहुत हो गया है। किसी   समाचार-पत्र के कार्यालय में जाए   ब्यूरो चीफ की थोडा चमचागिरी करे , कुछ खर्च  और कुछ दिनों में आपके पास चमचाता हुई अखबार का आई-कार्ड आ जाएगा। इस तरह भले ही आप साधारण संवाददाता ही बन पाए  ।  परन्तु  हे तो पत्रकार ही |  ओर जरुरी नहीं की जिस पेपर के आप संवाददाता बने हो  उसमे आप समाचार प्रेषण का काम करे ही | यह  काम ब्यूरो चीफ ही कर देगे | आखिर उन्हें भी तो भविष्य देखना है | आप बिच बिच में केवल उअनका ख्याल कर लेवे | कार्ड हाथ में आने के बाद अब आपके घर में जितने भी वाहन हैं, सब पर शान से प्रेस लिखवाएं और सड़कों पर रौब गालिब करते घूमें। इससे कोई मतलब नहीं है कि आपको अपने हस्ताक्षर करने आते हैं या नहीं। कभी एक भी लाईन लिखी है या नहीं। आपके पास किसी अखबार का कार्ड है तो आप प्रेस वाले हैं। इलाके में हद तो यह है कि गैर कानूनी काम करने वाले भी अपने आपको पत्रकार कहते है , अखबारों के कार्ड रखते हैं। पैसे देकर कार्ड बनाने वाले अखबारों के  ब्यूरो चीफ भी अपन जान बचाने के लिए कार्ड के पीछे एक यह चेतावनी छाप देते हैं कि ‘यदि कार्ड धारक किसी गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त पाया जाता है तो उसका वह खुद जिम्मेदार होगा और उसी समय से उसका कार्ड निरस्त हो जाएगा।’ जिन अखबारों के नाम में ‘मानवाधिकार’ शब्द का प्रयोग हो तो उस अखबार के कार्ड की कीमत पांच से दस हजार रुपए तक हो सकती है। इसकी वजह यह है कि आप अखबार वाले के साथ ही मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हो जाते हैं। लोगों की आम धारणा है कि पुलिस और प्रशासन ‘प्रेस’ और ‘मानवाधिकार’ शब्द से बहुत खौफ खाते हैं।  बात यहीं खत्म नहीं होती। अधिकतर पत्रकार पत्रकारिता कम चाटुकारिता ज्यादा करते हैं.अपने वरिष्ठ सहयोगियों का सम्मान करना बुरा नहीं है और ऐसा करना भी चाहिए लेकिन इतना नहीं कि उसकी श्रेणी बदल जाए और वह चापलूसी बन जाए | इलाके में कई ऐसे  पत्रकारों को लोग जानते है जिन्होंने केवल चापलूसी के चलते अपनी पहचान बनाई है |ओर खाक पति से आज मालामाल हो गए है |प्रेस की इसी महिमा के कारण  सड़कों पर चलने वाली प्रत्येक दूसरी या तीसरी मोटर साइकिल, स्कूटर और कार पर प्रेस लिखा नजर आ जाएगा। यकीन नहीं आता तो शहर की किसी व्यस्त सड़क पर ही नहीं छोटे कसबे की किसी भी सडक पर  पांच-दस मिनट बाद खड़े होकर देख लें। 
                                   ‘प्रेस’ से जुड़ने की लालसा के पीछे का कारण भी जान लीजिए। शहर में वाहनों की चैकिंग चल रही है तो वाहन पर प्रेस लिखा देखकर पुलिस वाला नजरअंदाज कर देता है। मोटर साइकिल पर तीन सवारी बैठाकर ले जाना आपका अधिकार हो जाता है, क्योंकि आप प्रेस से हैं। किसी को ब्लैकमेल करके भारी-भरकम पैसा कमाने का मौका भी हाथ आ सकता है। प्रेस की आड़ में थाने में दलाली भी की जा सकती है। देखा, है ना प्रेस वाला बनने में फायदा ही फायदा। तो आप कब बन रहे हैं, प्रेस वाले?