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Saturday, January 23, 2010

किसी भी समय ग्राहक करा सकता है गैस बुकिंग | सूचना अधिकार कानून के तहत खुली गैस एजेसियों की मनमानी की पोल |



 एक सिलेंडर के उठाव के बाद अगले सिलेंडर की बुकिग के लिए २१ दिनों के अंतर  की बात गैस एजेसियों द्वारा ग्राहकों को टालने के लिए किया जाता है | कानूनन  गैस एजेसियों को ऐसा  करने का अधिकार नहीं है | गैस की बुकीग  सिलेंडर लेने के  साथ करवाई जा सकती है | गैस एजेसियों द्वारा  २१ दिनों में बुकिंग के दावे की पोल खोली सुचना के अधिकार कानून ने | इन्डियन आयल कारपोरेशन लिमिटेड के पटना कार्यालय से एल पि जी गैस सिलेंडर के गोदाम एवं होम डिलेवरी के दर का ब्योरा भी मांगा गया था | पूरी जानकारी  गैस एजेसियों के मनमानी की पोल खोलने को काफी है| इडियन आयल के अधिकारी एस के सिन्हा के हस्ताक्षर के जरिए उपल्ब्ध करवाई गई जानकारी के अनुसार यदि गोदाम से कोई उपभोक्ता सीधे गोदाम से डिलेवरी लेता है तो उसे प्रति रिफिल  आढ़ रुपया छुट मिलेगी |  दी गए जानकारी में यह स्पष्ट उल्लेख है की रिफिल मिलने के बाद अगले रिफिल की बुकिंग के लिए कोई समय बाध्यता नहीं है |   गैस एजेसियों के कार्य अबधि के अन्दर ग्राहक किसी भी समय अपनी आवश्यकतानुसार अगले रिफिल के लिए बुकिंग कर सकता है |

Friday, January 22, 2010

क्या खुलेगा नेताजी की मोंत का राज ?



हमेशा की तरह  इस मर्तबा भी 23 जनवरी को नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्मदिन हर साल की तरह ही मनाया गया  और रस्मी तौर पर उन्हें याद किया गया , पर आजादी के बासठ साल से ज्यादा गुजर जाने के बावजूद 23 जनवरी 1897 को जन्मे भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इस नायक की मौत के बारे में सही जानकारी अब तक लोगों को नहीं मिल पाई है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जान आखिर कैसे गई? यह एक ऐसा सवाल है, जो हर हिंदुस्तानी को सोचने पर मजबूर कर देता है। बीते दिनों सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारियों के बाद इस अनसुलझी पहेली के तार और ज्यादा उलझते नजर आ रहे हैं। पर सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर नेताजी की मौत की गुत्थी को सुलझाने के लिए कोई सुगबुगाहट नजर नहीं आ रही है। सरकारी महकमा कहता आया है कि 1945 में हुई विमान दुर्घटना में ही नेताजी की मौत हो गई। पर इस महान देशभक्त में रुचि रखने वालों और नेताजी पर अध्ययन करने वालों का दावा है कि नेताजी की जान विमान हादसे में नहीं गई थी। पर अहम सवाल यह है कि ये दावे तथ्यों और तर्को की कसौटी पर कितना खरे उतरते हैं? 18 अगस्त 1945 को कथित तौर पर ताईवान में एक विमान दुर्घटना हुई थी। भारत सरकार कहती रही है कि इस हादसे में मरने वालों में नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी शामिल थे। अब तक यह कहा जाता रहा है कि महात्मा गांधी से बगावत करके जापान की मदद से आजाद हिंद फौज का गठन करके फिरंगियों के खिलाफ भारत की आजादी के लिए जंग छेड़ने वाले नेताजी की अस्थियां जापान के रेंकोजी टेंपल में रखी हुई हैं। नेताजी की मौत की गुत्थी को सुलझाने के लिए बनी शाहनवाज कमेटी और खोसला कमीशन की रिपोर्ट भी इसी बात की पुष्टि करती है। पर मामले का दूसरा पहलू हैरत में डालने वाला है। अब यह कहा जा रहा है कि नेताजी की मौत उस विमान हादसे में नहीं हुई थी। अब इस पर भी विवाद पैदा हो गया है कि विमान दुर्घटना हुई भी थी या नहीं। उस कथित विमान हादसे पर सवालिया निशान खुद ताइवान सरकार लगा रही है। ताईवान सरकार ने कहा है कि 18 अगस्त 1945 को वहां कोई विमान हादसा नहीं हुआ था। ऐसा होता तो ताईवान के अखबारों में उस समय यह खबर जरूर छपी होती। वर्ष 1999 में एनडीए सरकार ने नेताजी की मौत की तहकीकात के लिए जस्टीस एमके मुखर्जी की अध्यक्षता में मुखर्जी आयोग का गठन किया। मुखर्जी आयोग ने भी इस बात की पुष्टि कर दी कि नेताजी की मौत उस कथित विमान हादसे में नहीं हुई थी। अहम सवाल यह है कि आखिर किस रिपोर्ट को सही माना जाए। एनडीए के नेता कहते रहे हैं कि नए तथ्यों के अधार पर मुखर्जी आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि नेताजी की मौत उस विमान हादसे में नहीं हुई। पर सियासी वजहों से कांग्रेस सरकार ने उस रिपोर्ट को खारिज कर दिया। इससे इतना तो साफ है कि एक महान देशभक्त की मौत पर भी अपने देश के नेता सियासत करने से बाज नहीं आए। सोचने वाली बात यह भी है कि आखिर कांग्रेस के राज में गठित कमेटी उसकी मर्जी के मुताबिक और एनडीए के राज में बनाई गई कमेटी उसकी विचारधारा के मुताबिक रिपोर्ट क्यों देती है? बड़ा सवाल यह है कि स्वतंत्रता की लड़ाई के एक महान नायक नेताजी के बारे में आजाद भारत के लोगों को सच्चाई का पता कब चल पाएगा? मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट आने के पहले भी नेताजी की मौत को लेकर खासा विवाद रहा है। कई लोग लंबे समय से यह दावा करते रहे हैं कि जापान के रेंकोजी मंदिर में रखी गई अस्थियां नेताजी की नहीं, बल्कि वह एक जापानी सैनिक की है, लेकिन सरकार इसे ही नेताजी की अस्थियां मानती रही है और जापान दौरे पर जाने वाले हिंदुस्तानी नेता भी इसी के आगे सिर झुकाते रहे हैं। अब यह बात खुल गई है कि जापान के रेंकोजी मंदिर में 1945 से संभाल कर रखी जा रही अस्थियां नेताजी की नहीं हैं। मुखर्जी आयोग ने इस बात की पुष्टि तो की ही, साथ ही इस मसले पर 1965 में बनाई गई शाहनवाज जांच समिति में भी मतभेद रहा है। शाहनवाज समिति के तीसरे सदस्य नेताजी के बड़े भाई सुरेश चंद्र बोस थे। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में साफ-साफ लिखा है कि इस बात का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर यह मान लिया जाए कि टोक्यो के रेंकोजी मंदिर में रखी अस्थियां नेताजी की हैं। नेताजी को जिस कथित विमान हादसे का शिकार बताया जाता है, उसमें उनके साथ लेफ्टिनेंट कर्नल हबीबुर्रहमान खान भी थे। उनसे इस बारे में कई बार पूछताछ की गई। उन्होंने बार-बार यही कहा कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में बुरी तरह जल गए थे और इसके बाद उनकी मौत अस्पताल में हो गई थी। सुभाष चंद्र बोस से जुड़े विषयों पर काम करने वाली संस्था मिशन नेताजी के लोगों ने जब इस बारे में तथ्यों को खंगाला तो उन्हें इस बात के पुख्ता प्रमाण मिले कि रहमान ने नेताजी के बारे में जो कहा वह सच नही था। 1946 में जब उन्हें अपने मित्र और नेताजी के सचिव मेजर ई भास्करन ने नेताजी की मौत के बारे में कुरेदा तो रहमान ने कहा था कि उन्होंने नेताजी को वचन दे रखा, लिहाजा इस बारे में कुछ नहीं कह सकते। सूचना के अधिकार के तहत जब जानकारी मांगी गई कि जापान के रेंकोजी मंदिर में रखी गई अस्थियों को भारत लाने के लिए सरकार क्या कर रही है? इस सवाल का जो जवाब मिला, उससे सरकार की मंशा पर सवालिया निशान लगता है। जवाब में कहा गया कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अस्थियों को भारत लाने के संबंध में अभी तक कोई फैसला नहीं लिया गया है। जब सरकार मानती है कि वे अस्थियां नेताजी की ही हैं तो सवाल यह उठता है कि आखिर उन्हें अब तक भारत क्यों नहीं लाया गया? एक सरकारी फाइल में तो उस समय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के सचिव रहे एमओ मथाई ने लिखा है कि भारत के विदेश मंत्री ने टोकियो के भारतीय उच्चायोग से नेताजी की अस्थियों और नेताजी के कुछ और सामानों के साथ उनके पास से मिले तकरीबन दौ सौ रुपये रिसिव किए थे। मालूम हो कि उस समय विदेश मंत्रालय भी जवाहर लाल नेहरू के पास था। अहम सवाल यह है कि इन अस्थियों का क्या किया गया? क्या ये अस्थियां नेताजी के परिजनों के पास पहुंची? इन सवालों का जवाब सरकार के पास नहीं है। यह बात भी सामने आई है कि रेंकोजी मंदिर के पुजारी ने 23 नवंबर 1953 को प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को पत्र लिखकर बताया था कि 18 सितंबर 1945 से नेताजी की अस्थियां वहां रखी जा रही हैं तो उस समय नेताजी की अस्थियों को वापस लाने के लिए आवश्यक कदम क्यों नहीं उठाए गए? जाहिर है 1945 से लेकर अब तक नेताजी के मामले में सरकार का रवैया गैर-जिम्मेदराना रहा है। आखिर देश के एक महान नेता और स्वतंत्रता सेनानी नेताजी के बारे में सच देश की जनता के सामने आ पाएगा? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब किसी के पास नहीं है। मौजूदा सरकार भी इस दिशा में कुछ कराती नजर नहीं आती |

भारत नेपाल संधि में बदलाव क्यों

विदेश मंत्री एसएम कृष्णा द्वारा भारत-नेपाल संधि की समीक्षा से सहमति जताने के बाद नेपाल के माओवादियों को यह आरोप वापस ले लेना चाहिए कि भारत समीक्षा के पक्ष में नहीं है। वैसे 1950 के बाद परिस्थितियां काफी बदल चुकी हैं, लेकिन जैसा कृष्णा ने कहा है, इसकी पहल नेपाल को ही करनी होगी। उन्हें अपने प्रस्ताव के साथ आगे आना होगा। नेपाल की वर्तमान सरकार ने इसकी औपचारिक मांग नहीं की है, किंतु माओवादी इसकी मांग लंबे समय से कर रहे हैं। जब माओवादी प्रमुख प्रचंड प्रधानमंत्री के रूप में सितंबर 2008 में भारत आए थे, तब भी नेपाल में कहा गया था कि वे भारत से संधि की समीक्षा की मांग करेंगे। यह बात अलग है कि आठ महीने तक सरकार चलाने के बावजूद औपचारिक मांग कभी आई नहीं। दरअसल, इस पर सरकार केअंदर ही एक राय नहीं थी। आज भी ऐसा ही है, पर माओवादियों ने इसे अपने भारत विरोधी प्रचार के एक प्रमुख अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया है। वे इस संधि को नेपाल के हितों के विरुद्ध एवं भारत के हितों का संरक्षण करने वाली मानते हैं। उनका कहना है कि भारत ने नेपाल को अन्यायपूर्ण संधि के पालन के लिए करीब पिछले 60 सालों तक बाध्य किया है। ऐसे आरोपों पर कोई टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन नेपाल के लोग यह न भूलें कि भारत ने 1950 की शांति एवं मित्रता संधि द्वारा अंग्रेजों के साथ हुई सभी संधियों का अंत कर नेपाल को समानता का दर्जा दिया। अंग्रेजों के साथ की गई 1923 की संधि में नेपाल को संप्रभु देश अवश्य स्वीकार किया, किंतु यह समानता पर आधारित नहीं थी। प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की ओर से लड़ते हुए मारे गए करीब 20 हजार गोरखा सैनिकों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए अंग्रेजों ने पहले एक लाख और बाद में दो लाख रुपये सालाना नेपाल को देना आरंभ किया था। 1950 की संधि की माओवादी या नेपाल के अन्य भारत विरोधी जो व्याख्या करें, पर 60 वर्ष पहले यह इस बात का उदाहरण था कि शीघ्र गुलामी से मुक्त हुआ देश अपने पड़ोसी के साथ किस प्रकार सम्मानजनक व्यवहार कर सकता है। संधि पर हस्ताक्षर राणा काल में हुआ, लेकिन यह लागू हुआ 1951 में लोकतंत्र की स्थापना के बाद। इसमें दोनों देशों के नागरिकों को एक-दूसरे के यहां राजनीति के अलावा वे सारे अधिकार दिए गए जो केवल स्वाभाविक नागरिकों को ही मिल सकता था। बसने से लेकर, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, नौकरी, शादी-विवाह आदि सभी अधिकार दिए गए। उस समय की दृष्टि से देखें तो संधि से नेपालियों को ज्यादा लाभ था, क्योंकि शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी आदि के लिए भारत में ही अवसर थे। भारत ने आजादी के साथ नेपाल सरकार के हर अवसर पर अंग्रेजों का साथ देने की भूमिका को भुला दिया, क्योंकि नेपाली जनता का बड़ा वर्ग आजादी के संघर्ष में भारतीयों के साथ था। इस संधि में भारत ने नेपाल के सुरक्षा व्यय के साथ सेना के प्रशिक्षण का दायित्व अपने सिर लिया। संधि संपन्न होने के बाद दोनों देशों के बीच कुछ मुद्दों पर और बातचीत हुई और अंतत: कुछ बिंदु जोड़े गए, जिनमें एक यह था कि अगर नेपाल अपने प्राकृतिक संसाधनों के विकास या किसी औद्योगिक प्रतिष्ठान के लिए विदेशी सहायता चाहता है तो वह पहले भारत सरकार या किसी भारतीय को प्राथमिकता देगा, लेकिन ऐसा तभी होगा, जब भारत या भारतीय द्वारा ऑफर शर्त विदेशी शर्त से नेपाल के लिए कम लाभदायक नहीं होंगे। इसमें भी संयुक्त राष्ट्र संघ या अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के संदर्भ में यह बिंदु लागू नहीं होगा। इस बिंदु की आप किसी तरह व्याख्या कर सकते हैं। इसी प्रकार नेपाल सरकार यदि अपनी सुरक्षा के लिए दूसरे देशों से शस्त्र आदि भारत के रास्ते मंगाना चाहे तो ऐसा वह भारत की सहमति एवं उसके सहयोग से ही कर सकता है। यह एक समानता की संधि थी, जिसमें दोनों बाहरी आक्रमण के कारण एक-दूसरे की सुरक्षा पर खतरे को सहन नहीं करने और दोनों सरकारों के बीच मित्रतापूर्ण संबंधों को तोड़ने वाली या गलतफहमी पैदा करने वाली पड़ोसी देशों की गतिविधियों की सूचना देने के प्रति वचनबद्व हैं। नेपाल में इस संधि के खिलाफ आवाजें बीच-बीच में उठतीं रहीं हैं। 1995 में नेपाल के कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री मनमोहन अधिकारी ने भारत यात्रा के दौरान संधि की समीक्षा करने की मांग की, पर औपचारिक अनुरोध नहीं आया। वैसे भी 1950 की मूल संधि में परिवर्तन हो चुका है। अब व्यापार एवं पारगमन संधि उसका भाग नहीं है। विरोधी जानते हैं कि 1978 में नेपाल की मांग पर अलग संधि हुई। 1988 में नेपाल के रवैये के कारण 23 मार्च 1989 में संधि समाप्त हो गई थी और नेपाल संकट में घिर गया था। लोकतंत्र आने के बाद जून 1990 में नेपाली प्रधानमंत्री कृष्ण प्रसाद भट्टराई एवं भारतीय प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के बीच नई दिल्ली में भारत-नेपाल विशेष सुरक्षा संबंध स्थापित हुआ और दिसंबर 1991 में प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोईराला की भारत यात्रा के दौरान व्यापार और पारगमन संधि पर हस्ताक्षर किया गया। उस दौरान अन्य आर्थिक समझौते भी हुए। इस समय की व्यापार और पारगमन संधि एनडीए के शासनकाल में 6 जनवरी 1999 को हुई थी। इसके प्रावधान के मुताबिक छह महीने पूर्व किसी भी पक्ष द्वारा नोटिस नहीं देने पर यह हर बार सात वर्ष के लिए आगे बढ़ता जाएगा। दोनों पक्षों की सहमति से इसमें संशोधन एवं परिवर्तन का प्रावधान समाहित है। कोई भी पक्ष नोटिस देकर ऐसा कर सकता है। नेपाल यदि इसमें परिवर्तन चाहता है तो उसे नोटिस देना चाहिए। मजे की बात यह कि विरोधी व्यापार एवं पारगमन संधि पर कुछ नहीं बोल रहे हैं। आखिर दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, इसलिए समीक्षा दोनों की होना चाहिए। 1950 में नेपाल का ही आग्रह था कि भारत के उद्योगपति, व्यापारी, तकनीशियन, इंनजीनियर आदि उसके देश आकर उद्यम करें। आज वहां के कारोबार एवं उद्योग में भारतीयों की संख्या पर आपत्ति उठाई जा रही है और इसकी जड़ शांति एवं मित्रता संधि को बताया जा रहा है। संधि में नेपाल को एक वर्ष का नोटिस देकर अलग होने का अधिकार है। वह चाहे तो ऐसा कर सकता है। हालांकि 1950 में सीमा शुल्क एवं पारगमन के जो 21 स्थान निश्चित हुए, उनमें बदलाव नहीं आया है। हां, लोगों ने अवश्य अनेक उप-पारगमन स्थल विकसित कर लिए हैं, जिनसे सामानों के साथ मनुष्य की भी तस्करी हो रही है, लेकिन यह संधि की नहीं, प्रशासनिक विफलता है। वास्तव में यह दुर्भाग्य है कि नेपाल की ओर से भारत के खिलाफ जो आवाजें उठती हैं, उनके पीछे तार्किकता से ज्यादा कुंठा होती है। पड़ोसी होने के नाते भारत नेपाल को हर संभव लाभ पहुंचाए एवं उसकी किसी कमजोरी का अपने लाभ के लिए उसके हितों के विरुद्ध उपयोग न हो, इससे हर भारतीय सहमत होगा। भारत के नौकरशाहों एवं राजनयिकों द्वारा कुछ गलतियां हुई हैं और इसका संदेश नेपाल में अच्छा नहीं है। यह दूर होना चाहिए। नेपाल एक स्थिर, खुशहाल एवं शांत देश के रूप में अग्रसर हो यह भारत के हित में भी है, लेकिन भारत के साथ जुड़ी हर चीज को विस्तारवाद का परिचायक बताने की जो कोशिश नेपाल में हो रही है, उसके परिणाम कभी अच्छे नहीं हो सकते। कोसी संधि को भी प्रचंड अन्यायपूर्ण बताते हैं, जबकि उसमें 1966 में संशोधन के बाद नेपाल को पूर्ण स्वामित्व हासिल है। ये 1996 की महाकाली संधि को भी भारत के हित में नेपाली हितों की बलि चढ़ाने वाला कहते हैं। यह संधि महाकाली नदी, जिसे भारत में शारदा नदी कहते हैं, के जल के समेकित विकास के उद्देश्य से किया गया था। इसमें पंचेश्र्वर बहुउद्देश्यीय परियोजना है, जिसके तहत एक पत्थर का बांध एवं दो बिजली प्रतिष्ठान बनने हैं, जिनसे 5500 से 6500 मेगवाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य है। माओवादी इसे महाकाली को बेचने वाली संधि कहते हैं। अगर इन सबमें संशोधन की जरूरत है तो होना चाहिए। किंतु इसके लिए भारत को गाली देना तो जरूरी नहीं है। वास्तव में संधि के अंत या संशोधन की मांग के पीछे जो सोच दिख रही है, वह चिंताजनक हैं। दोनों देशों के नागरिकों के संबंध किसी संधि के आधार पर नहीं बने हैं। आम नेपाली के मन में काशी में मृत्यु श्रेष्ठतम मानने का भाव है तो उसे किसी संधि से खत्म नहीं किया जा सकता। पशुपतिनाथ के दर्शन के बगैर ज्योतिर्लिग पूरे नहीं होने की सोच किसी संधि से पैदा नहीं हुई।
 (लेखक अवधेश कुमार पत्रकार हैं)

Tuesday, January 19, 2010

एड्स के मामले में मणिपुर की राह पर चला किशनगज

 नेपाल सीमा पर बसे  किशनगंज  को एड्स के मामले में सबसे सवेदनशील मानते हुए सरकार व यूनीसेफ के सहयोग से किशनगंज में एड्स नियंत्रण कार्य  2003 में शुरू  तो हुआ  परन्तु जिले में एड्स रोगियों की बढती तादाद इस काम में जुटे सघतनो के  कागजी काम पर मोहर लगते है.  वर्ष 2009 तक  35 गुणा एचआईवी पोजिटिव मरीज की तादात जिले में हो जाना इस बीमारी के जिले में गभिर रूप ले लेने की तरफ ईशारा  तो करता ही है ।सरकारी योजनाएओ की  राशी  का किस तरह बन्दर बाट  होता है यह इसका जीता जागता उदहारण है , जिले में वर्ष 2009 में सरकारी आंकड़ा के मुताबिक 246 मरीज है जबकि वर्ष 2003 में यह संख्या  सात था।   कहते है न ज्यो-ज्यो ईलाज किया गया त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता गया । वर्ष 2002 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने यूनीसेफ को भारत के सात जिलों को एड्स की रोकथाम व लोगों में जागरूकता लाने के लिए बिहार के एक मात्र जिला को चुना और चरका प्रोग्राम चलाया गया। पांच वर्षो तक चरका प्रोग्राम जिले में संचालित था और करोड़ों रूपये पानी की तरह बहाया गया। जिसकी पुष्टि उपलब्ध कराये गए सरकारी आंकड़ों से होती है।  वर्ष 2003 में एचआईवी पोजिटिव 07 जो 2004 में 15, 2005 में 47, 2006 में 132, 2007 में 151, 2008 में 153, 2009 में 246 से अधिक हो चुकी है। तमाम सरकारी व्यय एवं एनजीओ द्वारा किए गए प्रयास को मूंह चिढ़ाते ये आंकड़े समस्त प्रयासों की विफलता की कहानी कहते हैं। आंकड़ों का बढ़ता क्रम भविष्य की भयावह तस्वीर प्रस्तुत करता है। बिहार के पूर्वोत्तर कोने में स्थित किशनगंज जिला जो कि पूर्वोत्तर राज्यों का शेष भारत से जुड़ने का एक मात्र गलियारा है, मणीपुर की राह पर चल चुका है। यह एड्स के संदर्भ में उभर कर सामने आ रहा है। फिलवक्त जिले में एड्स कंट्रोल के लिए जिला एड्स कंट्रोल सोसाइटी के अलावे आधा दर्जन स्वयं सेवी संस्था काम कर रहा है। समस्याओं को जड़ में जाकर कारगर प्रयास करना होगा और बाहर से आने वाले लोगों पर सामाजिक जागरूकता लाकर आवश्यक स्वास्थ्य का परीक्षण करना नितांत आवश्यक है। एक सवाल सबों दिलों में कचोट रहा कि वर्ष 2002 में यूनीसेफ द्वारा किशनगंज में चरका परियोजना चलायी गई और करोड़ों रूपये खर्च के बाद नियंत्रण के बजाय बढ़ोत्तरी ही हुई । इससे साफ दर्शाता है कि चरका का कार्य जमीन के बजाय कागजों पर ही हुआ है