Pages

Friday, January 22, 2010

भारत नेपाल संधि में बदलाव क्यों

विदेश मंत्री एसएम कृष्णा द्वारा भारत-नेपाल संधि की समीक्षा से सहमति जताने के बाद नेपाल के माओवादियों को यह आरोप वापस ले लेना चाहिए कि भारत समीक्षा के पक्ष में नहीं है। वैसे 1950 के बाद परिस्थितियां काफी बदल चुकी हैं, लेकिन जैसा कृष्णा ने कहा है, इसकी पहल नेपाल को ही करनी होगी। उन्हें अपने प्रस्ताव के साथ आगे आना होगा। नेपाल की वर्तमान सरकार ने इसकी औपचारिक मांग नहीं की है, किंतु माओवादी इसकी मांग लंबे समय से कर रहे हैं। जब माओवादी प्रमुख प्रचंड प्रधानमंत्री के रूप में सितंबर 2008 में भारत आए थे, तब भी नेपाल में कहा गया था कि वे भारत से संधि की समीक्षा की मांग करेंगे। यह बात अलग है कि आठ महीने तक सरकार चलाने के बावजूद औपचारिक मांग कभी आई नहीं। दरअसल, इस पर सरकार केअंदर ही एक राय नहीं थी। आज भी ऐसा ही है, पर माओवादियों ने इसे अपने भारत विरोधी प्रचार के एक प्रमुख अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया है। वे इस संधि को नेपाल के हितों के विरुद्ध एवं भारत के हितों का संरक्षण करने वाली मानते हैं। उनका कहना है कि भारत ने नेपाल को अन्यायपूर्ण संधि के पालन के लिए करीब पिछले 60 सालों तक बाध्य किया है। ऐसे आरोपों पर कोई टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन नेपाल के लोग यह न भूलें कि भारत ने 1950 की शांति एवं मित्रता संधि द्वारा अंग्रेजों के साथ हुई सभी संधियों का अंत कर नेपाल को समानता का दर्जा दिया। अंग्रेजों के साथ की गई 1923 की संधि में नेपाल को संप्रभु देश अवश्य स्वीकार किया, किंतु यह समानता पर आधारित नहीं थी। प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की ओर से लड़ते हुए मारे गए करीब 20 हजार गोरखा सैनिकों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए अंग्रेजों ने पहले एक लाख और बाद में दो लाख रुपये सालाना नेपाल को देना आरंभ किया था। 1950 की संधि की माओवादी या नेपाल के अन्य भारत विरोधी जो व्याख्या करें, पर 60 वर्ष पहले यह इस बात का उदाहरण था कि शीघ्र गुलामी से मुक्त हुआ देश अपने पड़ोसी के साथ किस प्रकार सम्मानजनक व्यवहार कर सकता है। संधि पर हस्ताक्षर राणा काल में हुआ, लेकिन यह लागू हुआ 1951 में लोकतंत्र की स्थापना के बाद। इसमें दोनों देशों के नागरिकों को एक-दूसरे के यहां राजनीति के अलावा वे सारे अधिकार दिए गए जो केवल स्वाभाविक नागरिकों को ही मिल सकता था। बसने से लेकर, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, नौकरी, शादी-विवाह आदि सभी अधिकार दिए गए। उस समय की दृष्टि से देखें तो संधि से नेपालियों को ज्यादा लाभ था, क्योंकि शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी आदि के लिए भारत में ही अवसर थे। भारत ने आजादी के साथ नेपाल सरकार के हर अवसर पर अंग्रेजों का साथ देने की भूमिका को भुला दिया, क्योंकि नेपाली जनता का बड़ा वर्ग आजादी के संघर्ष में भारतीयों के साथ था। इस संधि में भारत ने नेपाल के सुरक्षा व्यय के साथ सेना के प्रशिक्षण का दायित्व अपने सिर लिया। संधि संपन्न होने के बाद दोनों देशों के बीच कुछ मुद्दों पर और बातचीत हुई और अंतत: कुछ बिंदु जोड़े गए, जिनमें एक यह था कि अगर नेपाल अपने प्राकृतिक संसाधनों के विकास या किसी औद्योगिक प्रतिष्ठान के लिए विदेशी सहायता चाहता है तो वह पहले भारत सरकार या किसी भारतीय को प्राथमिकता देगा, लेकिन ऐसा तभी होगा, जब भारत या भारतीय द्वारा ऑफर शर्त विदेशी शर्त से नेपाल के लिए कम लाभदायक नहीं होंगे। इसमें भी संयुक्त राष्ट्र संघ या अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के संदर्भ में यह बिंदु लागू नहीं होगा। इस बिंदु की आप किसी तरह व्याख्या कर सकते हैं। इसी प्रकार नेपाल सरकार यदि अपनी सुरक्षा के लिए दूसरे देशों से शस्त्र आदि भारत के रास्ते मंगाना चाहे तो ऐसा वह भारत की सहमति एवं उसके सहयोग से ही कर सकता है। यह एक समानता की संधि थी, जिसमें दोनों बाहरी आक्रमण के कारण एक-दूसरे की सुरक्षा पर खतरे को सहन नहीं करने और दोनों सरकारों के बीच मित्रतापूर्ण संबंधों को तोड़ने वाली या गलतफहमी पैदा करने वाली पड़ोसी देशों की गतिविधियों की सूचना देने के प्रति वचनबद्व हैं। नेपाल में इस संधि के खिलाफ आवाजें बीच-बीच में उठतीं रहीं हैं। 1995 में नेपाल के कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री मनमोहन अधिकारी ने भारत यात्रा के दौरान संधि की समीक्षा करने की मांग की, पर औपचारिक अनुरोध नहीं आया। वैसे भी 1950 की मूल संधि में परिवर्तन हो चुका है। अब व्यापार एवं पारगमन संधि उसका भाग नहीं है। विरोधी जानते हैं कि 1978 में नेपाल की मांग पर अलग संधि हुई। 1988 में नेपाल के रवैये के कारण 23 मार्च 1989 में संधि समाप्त हो गई थी और नेपाल संकट में घिर गया था। लोकतंत्र आने के बाद जून 1990 में नेपाली प्रधानमंत्री कृष्ण प्रसाद भट्टराई एवं भारतीय प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के बीच नई दिल्ली में भारत-नेपाल विशेष सुरक्षा संबंध स्थापित हुआ और दिसंबर 1991 में प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोईराला की भारत यात्रा के दौरान व्यापार और पारगमन संधि पर हस्ताक्षर किया गया। उस दौरान अन्य आर्थिक समझौते भी हुए। इस समय की व्यापार और पारगमन संधि एनडीए के शासनकाल में 6 जनवरी 1999 को हुई थी। इसके प्रावधान के मुताबिक छह महीने पूर्व किसी भी पक्ष द्वारा नोटिस नहीं देने पर यह हर बार सात वर्ष के लिए आगे बढ़ता जाएगा। दोनों पक्षों की सहमति से इसमें संशोधन एवं परिवर्तन का प्रावधान समाहित है। कोई भी पक्ष नोटिस देकर ऐसा कर सकता है। नेपाल यदि इसमें परिवर्तन चाहता है तो उसे नोटिस देना चाहिए। मजे की बात यह कि विरोधी व्यापार एवं पारगमन संधि पर कुछ नहीं बोल रहे हैं। आखिर दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, इसलिए समीक्षा दोनों की होना चाहिए। 1950 में नेपाल का ही आग्रह था कि भारत के उद्योगपति, व्यापारी, तकनीशियन, इंनजीनियर आदि उसके देश आकर उद्यम करें। आज वहां के कारोबार एवं उद्योग में भारतीयों की संख्या पर आपत्ति उठाई जा रही है और इसकी जड़ शांति एवं मित्रता संधि को बताया जा रहा है। संधि में नेपाल को एक वर्ष का नोटिस देकर अलग होने का अधिकार है। वह चाहे तो ऐसा कर सकता है। हालांकि 1950 में सीमा शुल्क एवं पारगमन के जो 21 स्थान निश्चित हुए, उनमें बदलाव नहीं आया है। हां, लोगों ने अवश्य अनेक उप-पारगमन स्थल विकसित कर लिए हैं, जिनसे सामानों के साथ मनुष्य की भी तस्करी हो रही है, लेकिन यह संधि की नहीं, प्रशासनिक विफलता है। वास्तव में यह दुर्भाग्य है कि नेपाल की ओर से भारत के खिलाफ जो आवाजें उठती हैं, उनके पीछे तार्किकता से ज्यादा कुंठा होती है। पड़ोसी होने के नाते भारत नेपाल को हर संभव लाभ पहुंचाए एवं उसकी किसी कमजोरी का अपने लाभ के लिए उसके हितों के विरुद्ध उपयोग न हो, इससे हर भारतीय सहमत होगा। भारत के नौकरशाहों एवं राजनयिकों द्वारा कुछ गलतियां हुई हैं और इसका संदेश नेपाल में अच्छा नहीं है। यह दूर होना चाहिए। नेपाल एक स्थिर, खुशहाल एवं शांत देश के रूप में अग्रसर हो यह भारत के हित में भी है, लेकिन भारत के साथ जुड़ी हर चीज को विस्तारवाद का परिचायक बताने की जो कोशिश नेपाल में हो रही है, उसके परिणाम कभी अच्छे नहीं हो सकते। कोसी संधि को भी प्रचंड अन्यायपूर्ण बताते हैं, जबकि उसमें 1966 में संशोधन के बाद नेपाल को पूर्ण स्वामित्व हासिल है। ये 1996 की महाकाली संधि को भी भारत के हित में नेपाली हितों की बलि चढ़ाने वाला कहते हैं। यह संधि महाकाली नदी, जिसे भारत में शारदा नदी कहते हैं, के जल के समेकित विकास के उद्देश्य से किया गया था। इसमें पंचेश्र्वर बहुउद्देश्यीय परियोजना है, जिसके तहत एक पत्थर का बांध एवं दो बिजली प्रतिष्ठान बनने हैं, जिनसे 5500 से 6500 मेगवाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य है। माओवादी इसे महाकाली को बेचने वाली संधि कहते हैं। अगर इन सबमें संशोधन की जरूरत है तो होना चाहिए। किंतु इसके लिए भारत को गाली देना तो जरूरी नहीं है। वास्तव में संधि के अंत या संशोधन की मांग के पीछे जो सोच दिख रही है, वह चिंताजनक हैं। दोनों देशों के नागरिकों के संबंध किसी संधि के आधार पर नहीं बने हैं। आम नेपाली के मन में काशी में मृत्यु श्रेष्ठतम मानने का भाव है तो उसे किसी संधि से खत्म नहीं किया जा सकता। पशुपतिनाथ के दर्शन के बगैर ज्योतिर्लिग पूरे नहीं होने की सोच किसी संधि से पैदा नहीं हुई।
 (लेखक अवधेश कुमार पत्रकार हैं)

No comments:

Post a Comment