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Wednesday, August 8, 2012

जैन धर्मवालाबी क्यों अल्पसंख्यक आरक्षण से वंचित


 

अल्पसंख्यकों को  ओबीसी  कोटा के अंतर्गत 4.5 प्रतिशत आरक्षण देने की केंद्र सरकार की मंशा है। हालांकि आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय ने कड़ा रुख अपनाते हुए साफ किया है कि 'धर्म के आधार पर` आरक्षण का लाभ संविधान के विरूद्ध है। वर्तमान में दिसम्बर 2011 के बाद से शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में ओबीसी वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है। पिछले दिनों 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के ठीक पहले केंद्र सरकार ने कुटिल चतुराई से ओबीसी के कोटे में ही खासतौर से मुस्लिमों को लुभाने के लिए 4.5 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का प्रावधान कर दिया था। इसे उच्च न्यायालय ने अस्वीकारते हुए साफ किया कि कोटा के अंतर्गत उप कोटा दिए जाने का प्रावधान अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए दिया गया है। इसे कानूनी रूप देते हुए कहा गया है कि 'अल्पसंख्यकों से संबंधित` और 'अल्पसंखयकों के लिए` जैसे वाक्यों को जो प्रयोग किया गया है वह असंगत है, जिसकी कोई जरूरत नहीं है। इस फैसले का व्यापक असर होना तय है क्योंकि यह प्रावधान आईआईटी जैसे केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में भी लागू हो गया था।  
वंचित समुदाय वह चाहे अल्पसंख्यक हों अथवा गरीब सवर्ण उनको बेहतरी के उचित अवसर देना लाजिमी है, क्योंकि किसी भी बदहाली की सूरत, अल्पसंख्यक अथवा जातिवादी चश्मे से नहीं सुधारी जा सकती ? खाद्य की उपलब्धता से लेेकर शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी जितने भी ठोस मानवीय सरोकार हैं उनको हासिल करना मौजूदा दौर में केवल पूंजी और शिक्षा से ही संभव है। ऐसे में आरक्षण के सरोकारों के जो वास्तविक हकदार हैं, वे अपरिहार्य योग्यता के दायरे में न आ पाने के कारण उपेक्षित ही रहेंगे। अलबत्ता आरक्षण का सारा लाभ वे बटोर ले जाएंगे जो आर्थिक रूप से पहले से ही सक्षम हैं और जिनके बच्चे पब्लिक स्कूलों से पढ़े हैं। इसलिए इस संदर्भ में मुसलमानों और भाषायी अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की वकालात करने वाली रंगनाथ मिश्र आयोग की रिर्पाट के भी कोई बुनियादी मायने नहीं रह गए ?
यह सही है कि हमारे देश में आज भी धर्म और जाति आधारित भेदभाव बदस्तूर हैं। जबकि संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार धर्म, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर राष्ट्र किसी भी नागरिक के साथ पक्षपात नहीं कर सकता। इस दृष्टि से संविधान में विरोधाभास भी है। संविधान के तीसरे अनुच्छेद, अनुसूचित जाति आदेश 1950 जिसे प्रेसिडेन्शियल ऑर्डर के नाम से भी जाना जाता है, के अनुसार केवल हिंदू धर्म का पालन करने वालों के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को अनुसूचित जाति की श्रेणी में नहीं माना जाएगा। इस परिप्रेक्ष्य में अन्य धर्म समुदायों के दलित और हिंदू दलितों के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा है, जो समता और सामाजिक न्याय में भेद करती है। इसी तारतम्य में पिछले पचास सालों से दलित ईसाई और दलित मुसलमान संघर्षरत रहते हुए हिंदू अनुसूचित जातियों को दिए जाने वाले अधिकारों की मांग करते चले आ रहे हैं। रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट इसी भेद को दूर करने की पैरवी करती है।
वर्तमान समय में मुसलमान, सिख, पारसी, ईसाई और बौद्ध ही अल्पसंख्यक दायरे में आते हैं। जबकि जैन, बहाई और कुछ दूसरे धर्म-समुदाय भी अल्पसंख्यक दर्जा हासिल करना चाहते हैं। लेकिन जैन समुदाय केन्द्र द्वारा अधिसूचित सूची में नहीं है। इसमें भाषाई अल्पसंख्यकों को अधिसूचित किया गया है, धार्मिक अल्पसंख्यकों को नहीं। सुप्र्रिम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक माना गया है। परंतु इन्हें अधिसूचित करने का अधिकार राज्यों को है, केन्द्र को नहीं। इन्हीं वजहों से आतंकवाद के चलते अपनी ही पुश्तैनी जमीन से बेदखल कश्मीरी पंडित अल्पसंख्यक के दायरे में नहीं आ पा रहे हैं। हालांकि व्यक्तिगत स्तर पर सलमान खुर्शीद भी मानते है कि कश्मीरी पंडित अल्पसंख्यक हैं। मध्यप्रदेश में वगववदाजय सिंह की कांग्रेस सरकार के दौरान जैन धर्मावलंबियों को भी अल्पसंख्यक दर्जा दिया था, लेकिन अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली सुविधाओं से ये आज भी वंचित हैं। इस नाते' अल्पसंख्यक श्रेणी` का अधिकार पा लेने के क्या राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक निहितार्थ हैं, इन्हें समझना मुश्किल है। यहां तक कि आर्थिक रूप से कमजोर जैन धर्मावलंबियों के बच्चों को छात्रवृत्ति भी नहीं दी जाती।
अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने का आधार जिस मिश्र आयोग को बनाया गया है उसका गठन 'जांच आयोग के तहत` नहीं हुआ है। दरअसल इस रपट का मकसद केवल इतना था कि धार्मिक व भाषाई अल्पसंंख्यकों के बीच आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर व पिछडे तबकों की पहचान कर अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण सहित अन्य जरूरी कल्याणकारी उपाय सुझाये जाएं। जिससे उनका सामाजिक स्तर सम्मानजनक स्थिति हासिल कर ले। इस नजरिये से सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों का औसत अनुपात बेहद कम है। गोया संविधान में सामाजिक और शैक्षिक शब्दों के साथ 'पिछड़ा` शब्द की शर्त का उल्लेख किये बिना इन्हें पिछड़ा माना जाकर अल्पसंख्यक समुदायों को 15 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए। इसमें से 10 फीसदी केवल मुसलमानों को और पांच फीसदी गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को दिए जाने का प्रावधान तय हो। शैक्षिक संस्थाओं के लिए भी आरक्षण की यही व्यवस्था प्रस्तावित है। यदि इन प्रावधानों के क्रियान्वयन में कोई परेशानी आती है तो पिछड़े वर्ग को आरक्षण की जो 27 प्रतिशत की सुविधा हासिल है, उसमें कटौती कर 8.4 प्रतिशत की दावेदारी अल्पसंख्यकों की तय हो। वेैसे भी केरल में 12 प्रतिशत, तमिलनाडू 3.5, कर्नाटक 4, बिहार 3, पश्चिम बंगाल 10 और आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा 4 फीसदी मुस्लिमों को आरक्षण पिछड़ा वर्ग के आधार पर ही दिया गया है। केरल में तो आजादी के पहले से यह व्यवस्था लागू है। लिहाजा इस प्रावधान के तहत छह प्रतिशत मुसलमान और 2.4 प्रतिशत अन्य अल्पसंख्यक समुदायों को आरक्षण की सुविधा दी जा सकती है।

Thursday, July 26, 2012

लो बोले दिग्विजय की असम की हिंसा में सरकार का दोष नही ।


असम में हिंसा और नफरत की आग बुझ नहीं रही है। वही  कांग्रेस के महासचिव और असम मामलों के पार्टी प्रभारी दिग्विजय सिंह ने आग में घी डालते हुए यह कह दिया  कि असम की घटना की गुजरात के दंगों से तुलना नहीं की जा सकती है।  आसाम सरकार को क्लीन चिट देते हुए बडबोले   दिग्विजय ने कह दिया कि गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगे राज्‍य सरकार द्वारा प्रायोजित थे जबकि असम में हिंसा पर काबू पाने के लिए सीएम तरुण गोगोई और उनका पूरा अमला तत्‍काल जुट गया।   
  बांग्लादेश से आ रहे अवैध प्रवासी असम में जारी हिंसा की मूल वजह बताए जा रहे हैं। असम के मूल निवासियों का कहना है कि बांग्लादेश से लगातार भारत में अवैध रूप से घुस रहे लोगों की वजह से वे असुरक्षित महसूस करते हैं। असम के मूल निवासियों का कहना है कि प्रवासियों के चलते इस क्षेत्र का 'संतुलन' बिगड़ गया है। गौरतलब है कि भारत-बांग्लादेश की पूरी सीमा पर तारबंदी न होने और नदियों के चलते सीमा के उस पार से भारत में प्रवेश करना बहुत मुश्किल नहीं है। ऐसे में बड़ी तादाद में बांग्लादेशी लोग बेहतर ज़िंदगी की तलाश में भारत में प्रवेश करते रहे हैं। जानकारों का मानना है कि 1971 के बाद से बांग्लादेशियों का भारत आकर बसना जारी है। असम के नेताओं पर आरोप है कि वे इन अवैध प्रवासियों को पहचान पत्र दे देते हैं, ताकि वे उनके हक में वोट करें। बांग्लादेश से अवैध रूप से भारत में प्रवेश कर यहां की नागरिकता ले चुके लोगों का कोई औपचारिक आंकड़ा नहीं है। दिल्ली के एक एनजीओ आस्था भारती के हवाले से असम ट्रिब्यून में प्रकाशित खबर में दावा किया गया है कि करीब 2 करोड़ बांग्लादेशी भारत में आकर बसे हुए हैं। इनमें बड़ी तादाद में अल्पसंख्यक समुदाय के लोग हैं। जम्मू-कश्मीर के बाद असम में मुस्लिमों की सबसे बड़ी आबादी रहती है। प्रदेश में मुस्लिमों की आबादी तेजी से बढ़ी है। 1951 में असम में जहां सिर्फ 24.7 फीसदी मुस्लिम आबादी थी। वहीं, 2011 की जनगणना में यह आंकड़ा बढ़कर करीब 31 फीसदी हो गया। लेकिन लगता है कि केंद्र सरकार अवैध रूप से असम में रहने वाले प्रवासियों को बड़ी वजह नहीं मानती है। असम में हिंसा में बांग्लादेश का हाथ होने की आशंका को केंद्र सरकार ने खारिज कर दिया है। असम के कई जिलों, खासकर कोकराझार में फैली हिंसा के लिए बोडोलैंड टेरीटोरियल काउंसिल (बीटीसी) के गठन में खामियों को भी जानकार जिम्मेदार मान रहे हैं। स्थानीय बोडो समुदाय और प्रवासी अल्पसंख्यकों के बीच संघर्ष बीटीसी के गठन के बाद भी जारी है। गैर बोडो समुदाय के लोगों की शिकायत है कि बोडोलैंड टेरीटोरियल एरियाज डिस्ट्रिक्ट (बीटीएडी) में बोडो समुदाय अल्पसंख्यक है। इनकी आबादी कुल आबादी की एक-तिहाई है। बीटीएडी इलाकों में रह रहे गैर बोडो लोगों की शिकायत है कि बहुसंख्यक होने के बावजूद उन्हें कई अधिकारों से वंचित रखा गयाबोडो समुदाय शिकायत करता रहा है कि अवैध प्रवासी उनके इलाकों में आकर आदिवासियों की जमीन पर बस रहे हैं। बोडो समुदाय के लोगों का कहना है कि बांग्लादेश से सटी सीमा को सील करने की उनकी मांग पूरी नहीं हो रही है। इस समुदाय का कहना है कि बोडो काउंसिल एक्ट गैर बोडो समुदाय के लिए वारदान है क्योंकि यह एक्ट गैर बोडो लोगों के जमीन के हक को वैधता देता है। वहीं, इस एक्ट का वह प्रावधान भी बोडो समुदाय को खटकता है, जिसमें बोडो या गैर बोडो समुदाय के किसी भी नागरिक के जमीन के मालिकाना हक से जुड़े अधिकार को बरकरार रखा गया है। लेकिन असम में हिंसा के पीछे प्रदेश के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई को गरीबी वजह के तौर पर दिखाई देती है। गोगोई ने एक निजी चैनल से बातचीत में 'वोट बैंक' की राजनीति को हिंसा की वजह मानने से इनकार किया है। उन्होंने कहा, 'हम अपनी अर्थव्यवस्था को बेहतर करेंगे। ऐसा करके ही इन चीजों को रोका जा सकता है।' असम एक गरीब और पिछड़ा राज्य माना जाता है। योजना आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 2010 तक असम के 37.9 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे थे। असम में गरीबी के आंकड़े बढ़े हैं। 2004-05 में 34.4 फीसदी लोग ही वहां गरीबी रेखा से नीचे रहते थे।
पीड़ित जहां नेताओं को अपनी बदहाली के लिए जिम्‍मेदार बता रहे हैं, वहीं मुख्‍यमंत्री राज्‍य की बदहाली को हिंसा का कारण बता रहे हैं। हिंसा के पीछे क्या वजह है? इसे लेकर अलग-अलग दावे और राय सामने आ रही है। हिंसा की चार वजहें सामने आ रही हैं, जिनमें कुछ तात्कालिक हैं तो कुछ वजहें काफी पहले से समस्या बनी हुई हैं।